'राजा बहादुर' कामाख्या नारायण सिंह
(10 अगस्त 1916- 7 मई 1970)कृष्ण बल्लभ सहाय
(31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974)
1962 के आम चुनाव में 47 सदस्यों
के साथ स्वतंत्र पार्टी बिहार विधान सभा में सबसे बड़ी
विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी और विधान सभा अध्यक्ष
द्वारा कामाख्या नारायण सिंह
को विपक्ष के नेता के रूप में मनोनीत किया गया। फरवरी 1964 में
जब बजट सत्र के लिए विधानसभा की बैठक बुलाई गयी, तब कामाख्या नारायण सिंह ने माननीय
राज्यपाल के अभिभाषण पर बहस के दौरान वनों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उठाया। पहले कुछ दिनों
तक विपक्षी नेताओं को सुनने के बाद के. बी. सहाय जब जवाब देने के लिए खड़े हुए तो
विभिन्न विपक्षी दलों के नेता गायब पाए गए। सदन में विपक्ष के नेता स्वतंत्र पार्टी के कामाख्या नारायण सिंह (बरही), जिन्होंने
यह प्रश्न उठाया था, अनुपस्थित थे। इसी प्रकार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के कर्पूरी ठाकुर (ताजपुर) एवं कम्युनिस्ट पार्टी के चंद्रशेखर सिंह (तेघरा) भी मौजूद नहीं थे। इससे क्षुब्ध होकर के. बी. सहाय ने सभापति का ध्यान सभापीठ और सदन के इस
घोर अपमान की ओर दिलाया। जब कुछ कनिष्ठ नेताओं ने सफाई देने की कोशिश की कि वे उनकी बात सुनने के लिए मौजूद हैं, तब के. बी. सहाय ने उन्हें यह कहकर चुप
करा दिया कि -'आपको अभी भी
संसदीय लोकतंत्र में बहुत कुछ सीखना है। मैं उन माननीय सदस्यों की
अनुपस्थिति के बारे में बात कर रहा हूं जिन्होंने
माननीय राज्यपाल के अभिभाषण में संशोधन पेश किया था । यदि आपने कोई आपत्ति उठाई है या संशोधनों का सुझाव दिया है, तो आपके प्रस्तावित संशोधन पर सरकार का क्या कहना
है, यह सुनने के लिए आपको अवश्य उपस्थित होना चाहिए। हमें सदन की गरिमा को बनाए रखना चाहिए। इसी
प्रकार अभी जब मैं माननीय अध्यक्ष
महोदय को संबोधित कर रहा हूं तो बीच में टोकना भी संसदीय परम्पराओं के विरुद्ध है।
इसलिए मुझे बीच में न टोकें। यही लोकतंत्र का सार है'।
इसके बाद के. बी. सहाय ने बिहार में, विशेष रूप से
छोटानागपुर क्षेत्र में वनों के
संरक्षण से संबंधित प्रयास और वनों से सरकार को
प्राप्त आय से संबन्धित आंकड़े प्रस्तुत किए। 1948-49 में वनों से सरकार को कुल रुपये 42.95 लाख की आय प्राप्त हुई थी। बिहार निजी वन अधिनियम लागू करने और वनों के राष्ट्रीयकरण के बाद यह आय बढ़कर
2.60 करोड़ रुपये हो गई थी- इस प्रकार आय में पांच गुना से
अधिक की वृद्धि दर्ज हुई थी। कृष्ण बल्लभ सहाय ने कामाख्या नारायण सिंह के आरोपों का जोरदार खंडन करते हुए सदन को बताया कि- 'हमने स्थानीय
विरोध के बावजूद जंगल का राष्ट्रीयकरण करने का यह साहस दिखाया, जिसके लिए कांग्रेस ने भारी कीमत चुकाई है क्योंकि लोगों ने राष्ट्रीयकरण के विरोध में स्वतंत्र पार्टी को वोट दिया था। लेकिन हमने अपनी उपस्थिति कहीं और दर्ज करा दी है और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ के साथ गठबंधन के बावजूद स्वतंत्र पार्टी कांग्रेस की ताकत में सेंध नहीं लगा सकी। जैसे देवी सीता के स्वयंबर के दौरान कई राजा मिलकर भी शिव के पिनाकी धनुष को नहीं हिला सके उसी प्रकार ये सभी राजनीतिक दल मिलकर भी
काँग्रेस को हिला नहीं सके। भूप
सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥ डगइ न समभू सरासन कैसे, कामी वचन सती मनु जैसे।। (भावार्थ: धनुभंग
के समय दस हजार राजा एक साथ ही उस धनुष शिव-धनुष को उठाने लगे, पर वह तनिक भी अपनी जगह से रहीं हिला। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं
डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सति का मन कभी चलायमान नहीं होता।) (बिहार विधान सभा वाद-विवाद, 20 फरवरी 1964) कहना न होगा कि राजा कामाख्या का संशोधन प्रस्ताव
अस्वीकृत हुआ।
बतौर मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू के कार्यकाल का एक साल भी नहीं पूरा हुआ था कि कामाख्या नारायण सिंह के नेतृत्व में विपक्ष द्वारा 3 अगस्त 1964 को सदन में सरकार के खिलाफ 'अविश्वास प्रस्ताव' प्रस्तुत
किया गया। विरोधियों के पास अविश्वास हेतु कोई नीतिगत मुद्दा नहीं
था जो राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर के.बी. सहाय को कठघरे में खड़ा कर पाता। अविश्वास सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर नहीं वरन मुख्यमंत्री के बेटों के व्यावसायिक हितों पर सवाल उठाते हुए किया गया था। कामाख्या नारायण सिंह
ने कृष्ण बल्लभ बाबू के परिवार की तुलना क्रिकेट टीम से करते हुए कहा कि इनके पुत्रों की संख्या कितनी है यह पता नहीं चल पाता।
चार दिन तक विपक्ष उनपर व्यक्तिगत आक्षेप लगाता रहा जिसे वे धैर्यपूर्वक सुनते रहे। सभी को सुनने के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू जब बोलने को खड़े हुए तब वे शांतचित्त
थे। के. बी. सहाय ने जिस
संजीदगी से सभी आरोपों का जवाब दिया उससे उनके व्यक्तित्व की विशालता और विलक्षण नेतृत्व शैली का पता चलता है। विपक्षी नेताओं को उनके बौनेपन का अहसास कराते हुए कृष्ण
बल्लभ बाबू ने इन विपक्षी नेताओं को यह जता दिया कि वे उनके जैसे निम्न स्तर पर उतरकर
कभी व्यक्गिगत आक्षेप नहीं लगायेगें और विधानसभा को कभी भी व्यक्तिगत
आरोप-प्रत्यारोप एवं आक्षेप का अखाडा बनने नहीं देंगें। के. बी. सहाय ने
कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी एवं राजा कामाख्या नारायण सिंह को संसदीय
मर्यादा का प्रथम पाठ पढ़ाते हुए यह जता दिया कि निराधार आरोप नहीं लगाने चाहिए और उकसाए जाने के बावजूद सभ्य भाषा और सभ्य व्यवहार का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। के. बी. सहाय ने
भाव विह्वल होकर व्यक्तिगत आरोपों को खारिज किया और भाषण समाप्त करते हुए कहा कि- ‘माननीय अध्यक्ष, राजा कामाख्या मेरे परिवार का मखौल उड़ाते हैं कि मेरे इतने बेटे हैं कि कोई क्रिकेट टीम बन सकता है। मैं तो मध्यमवर्गीय परिवार का आदमी हूँ और हमारा सारा भोगविलास अपने
परिवार तक ही सीमित है। नतीजा यह है कि बाल-बच्चे हो जाते हैं। मगर जो अमीर हैं
उनके एक दो बच्चे होते हैं। स्त्री रहती है कश्मीर में तो खुद रहते हैं मसूरी में।
दोनों के दोस्त अलग-अलग, दोनों के क्लब अलग-अलग और दोनों का बैंक अकाउंट अलग-अलग हैं’।
व्यक्तिगत आक्षेप का जवाब देने के बाद के. बी. सहाय ने सदन का ध्यान कामाख्या नारायण सिंह के
खिलाफ सरकारी बकाए के भुगतान में हुई चूक की ओर आकृष्ट करते हुए पलटवार किया- ' कामाख्या नारायण सिंह ने आरोप लगाया है कि उन्हें सरकार द्वारा 'स्वीकृति का प्रमाण पत्र' नहीं दिया गया है। यह उल्लेख करना प्रासंगिक हो सकता है कि यह अनुमोदन वहां दिया गया है
जहां बकाया राशि का भुगतान कर दिया गया है। मौजूदा मामले में कामाख्या नारायण सिंह के खिलाफ किराए और रॉयल्टी की राशि बकाया है जो कुल रुपये 9, 78, 59,272/- (रुपये नौ करोड़ अस्सी लाख रुपये, उनतालीस हजार दो सौ बहत्तर मात्र) है। इसके अलावा,
कामाख्या
नारायण सिंह के खिलाफ आयकर के रुपये 2,44,64,818 / - (रुपये दो करोड़ चालीस चार लाख साठ चार हजार आठ सौ अठारह केवल) की राशि बकाया है, जिसमें राज्य सरकार की हिस्सेदारी रुपये 24,92,099/- (रुपये चौबीस लाख निन्यानबे हजार निन्यानवे मात्र) है। 1947-48 से 1950-51 की अवधि में जुर्माने सहित कृषि आयकर 4,54,017/- रुपये (रुपये चार लाख चौवन हजार सत्रह मात्र) बकाया है। इसलिए
सरकार ने उन्हें 'अनुमोदन का प्रमाण पत्र' जारी नहीं किया। मेरी सरकार ने कुशल और
पारदर्शी शासन प्रदान करने का प्रयास किया है और हम ऐसा करना जारी रखेंगे।' ( बिहार विधान सभा वाद-विवाद अगस्त 1964)
जिस आत्मविश्वास, दृढ़ता और निडरता से कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने बेटों के व्यावसायिक हित से संबन्धित आक्षेपों का जवाब दिया और इनका खंडन किया वो
उनके जैसे शुद्ध चरित्र वाले शख्स के लिए ही संभव था जिसे मालूम रहा हो कि उसने कुछ
गलत नहीं किया है। विपक्षी दलों को खुली चुनौती देते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने
बेलाग ऐलान कर दिया कि इन आरोपों की निष्पक्ष जांच करा ली जाये। यदि गलत पाये गए
तो वे राजनीति से सन्यास लेने को तैयार हैं अन्यथा विपक्षी दल राजनीति छोड़ दें।
किन्तु अर्नगल आरोप लगाने वाले विपक्षी दलों के नेताओं ने यह खुली चुनौती स्वीकार
नहीं की और पीछे हट गए। यह विपक्षी नेताओं और प्रैस की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा
था जिसके तहत वे कृष्ण बल्लभ बाबू के चारित्रिक हनन में लगे थे।
एक अन्य अवसर पर जब कामाख्या नारायण सिंह ने
हजारीबाग ज़िले में विधान सभा चुनावों में काँग्रेस के प्रदर्शन पर प्रश्न किया तब इसका
जवाब कृष्ण बल्लभ बाबू की ओर से तुरंत आया- ‘कामाख्या नारायण सिंह के तर्क के विपरीत मैं स्पष्ट कर दूं कि
कांग्रेस ने हजारीबाग ज़िले में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। उसने 1947 में जिला
बोर्ड के चुनावों में काँग्रेस ने 7 सीटें जीतीं जो उनकी पार्टी के बाद सबसे अधिक थी। 1952 में काँग्रेस ने कामाख्या नारायण सिंह की जनता पार्टी की 9 सीटों की तुलना में 7 सीटें जीतीं । हालांकि 1957 में कांग्रेस हजारीबाग में कोई सीट नहीं जीत पायी किन्तु 1962 में काँग्रेस को 4 सीटों पर जीत हासिल हुई। हजारीबाग के मतदाताओं का कांग्रेस के प्रति यह अपेक्षाकृत
कमजोर प्रतिक्रिया इसलिए है क्योंकि वे भोले हैं और कामाख्या नारायण सिंह की हरकतों से आसानी से प्रभावित हो
जाते हैं। हजारीबाग के मतदाताओं का हाल काला-जार से पीड़ित मरीज सी है। एक बार डॉक्टर ने जब ऐसे मरीज से पूछा कि क्या बीमारी है तो उसने मासूमियत से जवाब दिया, 'मुझे कैसे पता? दीवान
से पूछो ।' ( मो का जानू , जाने दिवानिया) आजादी के बाद हालांकि राष्ट्र ने 'राजतंत्र' को पीछे छोड़ दिया और 'लोकतंत्र'
को अपनाया तथापि हजारीबाग के मतदाता अभी भी अपनी वोट की शक्ति से अनजान हैं और इस शक्ति का प्रयोग ऐसे करते हैं जैसे कि वे अभी भी एक निरंकुश शासक द्वारा शासित राज्य के प्रजा हैं’। ( बिहार विधान सभा कार्यवाही 7 अगस्त 1964)
यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि कामाख्या नारायण सिंह भारत का पहला राजपरिवार था जो चुनाव प्रचार के लिए हेलीकॉप्टर का उपयोग करता था। दूसरी ओर के. बी. सहाय साईकल पर चुनाव प्रचार
करते थे। आजादी के बाद ही वह अपने चुनाव
अभियान के लिए एक चार पहिया वाहन का प्रबंध कर पाये थे।
19 मार्च 1968 को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया। इससे भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में एक और गठबंधन सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ। भोला पासवान शास्त्री को रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह के अलावा कांग्रेस के बिनोदानंद झा गुट का समर्थन प्राप्त था। राजा कामाख्या नारायण
सिंह भोला पासवान शास्त्री के मंत्रिमंडल में मंत्री बने। राजा कामाख्या नारायण सिंह की
राजनीति का आधार अपने
व्यक्तिगत अनुयायियों के समूह को बनाए रखना और अपने और अपने परिवार के हितों की
रक्षा के लिए खुद के लिए प्रमुखता की स्थिति खोजना रहा था। उन
हितों में व्यापक खनन संपत्तियां और वन भूमि शामिल थीं। इसके अलावे राज्य सरकार से सुरक्षा की आवश्यकता उनकी प्राथमिकता थी क्योंकि लंबे समय से विभिन्न आरोपों पर अदालत में उनके खिलाफ कई मामले लंबित थे, विशेष रूप से राज्य के बकाए की रकम के
भुगतान में चूक से संबन्धित मुकदमे, जिसके लिए राजा प्रसिद्ध थे। कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजनीतिक
घटनाक्रम को इस तरह नियंत्रित किया कि भोला पासवान शास्त्री ने राजा कामाख्या
नारायण सिंह को खनन और खनिज मंत्रालय से उपकृत करने से इनकार कर दिया। आवेश में आकर राजा कामाख्या नारायण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। किन्तु इसके बाद उनकी सत्ता में कभी वापसी नहीं हो पाई। 7 मई 1970
को कलकत्ता में अचानक दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका असामयिक निधन हुआ। उनका
अंतिम संस्कार उनके अपने जन्मस्थान पद्मा (बरही) में हुआ। इस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू और राजा कामाख्या नारायण सिंह के बीच दशकों पुरानी प्रतिद्वंद्विता, जो बिहार के छोटानागपुर
क्षेत्र में कई लोककथाओं का
विषय रही, का आकस्मिक पटाक्षेप हुआ।
के. बी. सहाय और राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह के बीच प्रतिद्वंद्विता की चर्चा अक्सर छोटानागपुर के राजनीतिक और बौद्धिक हलक़ों में होती थी। यह आम मत था कि
यदि ये दोनों शख्स साथ आ जाएँ तो छोटानागपुर का कायाकल्प हो सकता था। एक बार के. बी. सहाय के कुछ
करीबियों ने उनसे पूछा था-‘'यदि आप (के.बी.सहाय), कामाख्या नारायण सिंह और जयपाल सिंह मुंडा एक मंच पर आते हैं तो छोटानागपुर
में एक आमूल-चूल परिवर्तन की कल्पना की जा सकती है। के. बी.
सहाय ने तुरंत जवाब दिया था- 'मुझे
जरा भी झिझक नहीं है। आप देखिए, उनके पास अपने अलग एजेंडें हैं। आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि चंद्रमा सूर्य
के पाँव चूमेगी। लेकिन दोनों का होना जरूरी है।' ('मैं
जिस के.बी.सहाय को जानता था'- रघुवीर प्रसाद)
(संदर्भ: (i) बिहार विधान सभा की
कार्यवाही (ii) 'मैं जिस के.बी.सहाय को जानता था'- रघुवीर प्रसाद)
No comments:
Post a Comment