Friday, 18 June 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर : 17: डॉ अनुग्रह नारायण सिन्हा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (18 जून)

'बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा
(18 जून 1887- 5 जुलाई 1957)

कृष्ण बल्लभ सहाय
(31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)

'द इंडियन नेशन' में कृष्ण बल्लभ बाबू का
बिहार पुलिस एवं कानून व्यवस्था पर छपा समाचार  

कदम कुआं के अपने आवास पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ अनुग्रह बाबू 


अनुग्रह बाबू के पूर्वज देव, गया से थे जो अब औरंगाबाद ज़िला में पड़ता है। आज भी यहाँ अनुग्रह नारायण रोड रेलवे स्टेशन है। गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह से ही ये स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ गए थे। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बिहार विभूति अनुग्रह बाबू, बिहार केसरी श्रीबाबू एवं बिहार के लौह पुरुष कृष्ण बल्लभ बाबू के बीच जो तारतम्य बना वो ताज़िंदगी बना रहा। हाँ, वक़्त के थपेड़ों ने 1957 में इसे कुछ हिलाया अवश्य किन्तु इस वजह से इनके बीच कोई द्वेष भाव नहीं उत्पन्न हुआ। इन्होंने न केवल स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाइयाँ लड़ी वरन समाज में सौहार्द बनाए रखते हुए सूबे के विकास के लिए अभूतपूर्व कार्य किए।

गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के तहत 1937 में हुए चुनाव के बाद जब बिहार में काँग्रेस शासन बहाल करने की बात हुई तब श्रीकृष्ण सिन्हा एवं अनुग्रह बाबू केन्द्रीय विधान मण्डल (काउंसिल ऑफ स्टेट्स) के सदस्य थे और बिहार की राजनीति से सीधे जुड़े हुए नहीं थे। दूसरी ओर बिहार के एक अन्य प्रमुख नेता सैय्यद महमूद को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का समर्थन प्राप्त था। यह समझा जा रहा था कि उन्हें ही प्रधानमंत्री चुना जाएगा। किन्तु ऐन वक़्त पर डॉ राजेंद्र प्रसाद ने श्रीकृष्ण सिन्हा का प्रस्ताव सामने रखा जिनके नाम पर काँग्रेस विधायक दल के सदस्यों की सहमति बनी। इस अवसर पर डॉ राजेंद्र प्रसाद के इस निर्णय को अनुग्रह बाबू ने भी स्वीकार किया। और तो और इस निर्णय के पक्ष में विधायकों का समर्थन हासिल करने में अनुग्रह बाबू ने कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ मिलकर काम किया। डॉ सैय्यद महमूद के स्थान पर डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा को प्रधानमंत्री बनाए जाने का मलाल मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को सदा बना रहा। 1937-1939 के दरम्यान इस त्रिमूर्ति ने बिहार में एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था कायम किया और सीमित अधिकारों के बावजूद किसानों, मजदूरों एवं बेरोजगारों युवाओं के लिए कई प्रभावी निर्णय लिए। उस दौर में कितनी ही प्रवर समितियों में अनुग्रह बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू ने साथ-साथ काम किया। किसी भी कानून को सदन की पटल पर रखने से पूर्व प्रवर समिति द्वारा इनके मूल्यांकन की परिपाटी थी। प्रवर समिति के सदस्य सम्बद्ध हितधारक और सभी दलों के सदस्य होते थे। खुली बहस होती थी और फिर बहुमत से निर्णय लिया जाता था। यह परिपाटी अब समाप्तप्रायः है जिसका नतीजा किसान विधेयक के रूप में हमारे सामने है जिसपर आज कानून बन जाने के बाद विवाद छिड़ा है। छोटानागपुर टिनेनसी (संशोधन) बिल,1937, बिहार एवं उड़ीसा सिंचाई वर्क्स (संशोधन) बिल 1939 एवं ऐसे अन्य कई प्रवर समितियों में अनुग्रह बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू ने साथ काम किया।

1946 में बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में पुनः काँग्रेस की सरकार बनी। इस बार तात्कालिक काँग्रेस अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के आग्रह पर अनुग्रह बाबू ने एक बार पुनः श्रीकृष्ण सिन्हा के पक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी छोड़ दी और इस मंत्रिमंडल में उप-मुख्यमंत्री एवं वित्तमंत्री पद स्वीकार किया। कृष्ण बल्लभ बाबू इस मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री थे। यह वह दौर था जब समस्त देश सांप्रदायिक दंगे की आंच झेल रहा था। अपनी सूझ-बूझ से इस त्रिमूर्ति ने इन दंगों को बिहार में नियंत्रण में रखा। यह बात मुस्लिम लीग के नेताओं और उनके पोषित कुछ समाचारपत्रों यथा स्टार ऑफ इंडिया आदि को रास नहीं आता था। ऐसे में जब देहात नामक समाचारपत्र ने कृष्ण बल्लभ बाबू के एक वक्तव्य को बड़ी प्रमुखता से छापा जिसमें उन्होंने श्री कृष्ण सिन्हा और बाबू अनुग्रह नारायण सिन्हा को जननी-जन्मभूमि की आँख के दो तारे बताते हुए उन्हें सूबे में सांप्रदायिक दंगे पर कड़ी दृष्टि रखते हुए इसे नियंत्रित करने में मिली सफलता की तारीफ की, तब यह बात चंद मुस्लिम लीग नेताओं को पसंद नहीं आई। सैयद अमीन अहमद ने इस पर आपत्ति जताते हुए सूबे में मुस्लिमों पर हुए जुल्म की ओर ध्यान खीचने का प्रयास किया। बिहार की स्थिति को बंगाल से बेहतर बताते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने तुलसीदास के रामचरितमानस से एक चौपाई का उद्धरण देते हुए अमीन अहमद को सांप्रदायिकता को तूल देने से बाज आने को कहा- जे पर दोष लखहि सह साखी, पर हित घृत जिनके मन माखी; वचन वज्र जेहि सदा पियारा, सहस नथन पर दोष निहारा यानि मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ जो बिना प्रयोजन ही अपना हित करनेवाले के प्रति भी प्रतिकूल आचरण रखते हैं। अमीन साहब बिना वजह अपनी समुदाय के प्रति प्रतिकूल व्यवहार न करें और बंगाल के प्रधानमंत्री सुहरावर्दी साहब के बहकावे में न आयें तो बेहतर क्योंकि बिहार की स्थिति बंगाल से बेहतर है

स्वतन्त्रता के बाद देश के साथ-साथ बिहार ने भी विकास पथ पर अपने कदम बढ़ाए। बिहार में श्रीबाबू, अनुग्रह बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू की त्रिमूर्ति ने बेहतर तालमेल और प्रशासनिक सूझबूझ से सूबे में विकास के एक नए अध्याय की शुरुआत की। बिहार देश का पहला राज्य बना जहां कानून बनाकर जमींदारी उन्मूलन पहले-पहल हुआ। इसके प्रणेता कृष्ण बल्लभ बाबू थे। प्रथम पंचवर्षीय योजना के समाप्ति पर बिहार देश के अग्रणी राज्यों में से एक था। इसकी घोषणा स्वयं अनुग्रह बाबू ने बिहार विधान सभा में की थी। 1951-52-1960-61 के दरम्यान देश में कृषि का औसत विकास दर 32.3% था जबकि बिहार में यह विकास दर 50.3% रहा था। दूसरी ओर इस काल में देश में औद्योगिक निवेश के मामले में बिहार का स्थान तीसरा था। तब का बिहार राज्य देश भर में अपने उत्कृष्ट कानून-व्यवस्था के लिए जाना जाता था। 1956 में बिहार विधान सभा में पुलिस बजट पेश करते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू देश के विभिन्न राज्यों में अपराधों का तुलनात्मक आंकड़े पेश करते हुए यह जानकारी दी थी। कोई वजह नहीं लोक-प्रशासन के अग्रणी विशेषज्ञ डॉ पॉल हेनसन एपल्बी ने बिहार को तात्कालिक स्थिति में देश का सर्वोत्तम कुशल प्रशासनिक राज्यों में गिनती की थी हालांकि इस तथ्य को भी झुठलाने के प्रयास हुए हैं, जैसे आज भी कृष्ण बल्लभ बाबू की विरासत को नकारने और नज़रअंदाज़ करने का प्रयास किया जाता है। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-62-1966-67) के समय तक बिहार कृषि और औद्योगिक विकास में देश के अन्य प्रान्तों के समकक्ष ही था- देश का सबसे बड़ा औद्योगिक प्रांगण कृष्ण बल्लभ बाबू ने 1964 में आदित्यपुर में स्थापित किया जो 31000 एकड़ भूमि में फैला था। इसी परिकल्पना पर बारह साल बाद 1976 में नोएडा में औद्योगिक प्रांगण बना। 1964 में ही निजी निवेश के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू ने पतरातू में इंडस्ट्रियल कन्क्लेव का आयोजन किया जिसकी परिकल्पना चालीस साल बाद 2003 में एक दूसरे प्रांत में वाइब्रेन्ट गुजरात के रूप में देखने को मिला। इतने दूरगामी निर्णयों के बावजूद बिहार के पिछड़ने की क्या वजह रही यह विचार का विषय है। आज बिहार के पिछड़ने के पीछे इसके लैंडलॉक होने का बहाना बनाया जाता है किन्तु साठ के दशक में भी बिहार लैंडलॉक सूबा ही था। कृष्ण बल्लभ बाबू ने इन कमियों को कभी आड़े आने नहीं दिया और साठ के दशक में वे वो कदम उठा रहे थे जो देश बारह से चालीस साल बाद उठा रहा था। किन्तु तात्कालिक प्रैस और मीडिया एवं तथाकथित समाजवादी नेताओं ने कृष्ण बल्लभ बाबू के इन निर्णयों के लिए उनकी तारीफ करना तो दूर उन्हें निजी निवेशकों का हितैषी और भ्रष्ट तक करार दिया। आज जब इन तथ्यों को देखते हैं तब महसूस होता है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के कार्यों का कभी सही मूल्यांकन हुआ ही नहीं - यह सोचने का विषय है कि उन जैसे युग-दृष्टा युग-पुरुष को नकार कर सूबे ने कितना कुछ खोया है।  

बहरहाल हम पुनः मुद्दे पर वापस लौटते हैं। 1957 में दूसरे विधान सभा चुनाव के बाद काँग्रेस एक बार पुनः सत्ता में आई। अनुग्रह बाबू की महत्वाकांक्षा ने काँग्रेस विधायक दल के नेता पद के लिए उन्हें श्रीबाबू के समक्ष खड़ा कर दिया। दरअसल इन वर्षों में स्वजाति के नेताओं, खासकर महेश प्रसाद सिन्हा के प्रति श्रीबाबू का स्नेह और उनकी राजनीतिक केरियर सँवारने के उनके सनक ने उन्हें अन्य नेताओं से दूर कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि पहली बार अनुग्रह बाबू ने श्रीबाबू को नेता पद के लिए चुनौती दी। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अनुग्रह बाबू का साथ दिया क्योंकि महेश प्रसाद सिन्हा के साथ उनकी प्रतिद्वंदीता ने उन्हें श्रीबाबू से दूर कर दिया था। काँग्रेस विधायक दल के नेता के लिए हुए चुनाव में अनुग्रह बाबू की हार हुई। जिस दिन अनुग्रह बाबू की हार हुई उसी दिन वो श्रीबाबू से मिलने गए। सारे गिले-शिकवे दूर हुए। अनुग्रह बाबू का एक वक्तव्य आया कि कृष्ण बल्लभ बाबू और महेश प्रसाद सिन्हा के बीच वर्चस्व की आपसी प्रतिद्वंदीता ने उन्हें श्रीबाबू के खिलाफ लड़वा दिया। अनुग्रह बाबू के वक्तव्य पर कृष्ण बल्लभ बाबू की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। वे आपसी मतभेदों को सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं थे। अपनी महत्वाकांक्षा की विफलता को कृष्ण बल्लभ बाबू के मत्थे मढ़ने के बाद अनुग्रह बाबू बहुत दिन तक रहे नहीं। इसी वर्ष (1957) 5 जुलाई को उनका निधन हुआ। इस प्रकार बिहार ने एक मुख्यमंत्री खो दिया जो कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सका।

अनुग्रह बाबू की स्मृति को बनाए रखने के लिए 1957 में श्रीकृष्ण सिन्हा ने जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया। ज्ञातव्य रहे कि लगभग इसी समय कृष्ण बल्लभ बाबू को लेकर जयप्रकाश नारायण और श्रीकृष्ण सिन्हा कुछ जोरदार पत्राचार हुए थे जिसमें जयप्रकाश नारायण ने श्रीबाबू को जातिगत हितों से ऊपर उठकर अन्य काबिल नेताओं की ओर भी ध्यान देने की नसीहत तक दे डाली थी। उनका इशारा कृष्ण बल्लभ बाबू की ओर था। इन नेताओं में मतभेद भले रहे हों यह बात दीगर है कि इनमें कभी मनभेद नहीं हुआ और जहां सूबे अथवा राष्ट्र का मुद्दा आया वहाँ आपसी खींच-तान को ताखपर रख ये साथ काम करने लग जाते थे। आज यह संस्कृति विलुप्त हो चुकी है। जयप्रकाश नारायण ने कृष्ण बल्लभ बाबू को इस कमिटी में शामिल किया जिसपर श्रीबाबू ने कोई आपत्ति नहीं की। इस कमिटी के अनुशंसा से ही पटना में अनुग्रह बाबू की स्मृति में अनुग्रह नारायण सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान की स्थापना 1958 में हुई। इस संस्थान का उदघाटन तात्कालिक राष्ट्रपति महोदय डॉ राजेन्द्र प्रसाद के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ था।

1963 में मुख्यमंत्री बनने के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस संस्थान में अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप को समाप्त करने और इसे और अधिक स्वायत्ता देने हेतु जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति का गठन किया। वो चाहते थे कि यह संस्थान बिना किसी सरकारी रूकावटों के अपने जनादेश को स्वतंत्र रूप से अंजाम दे सके। कृष्ण बल्लभ बाबू का जयप्रकाश नारायण से यह आग्रह था कि वे इस संस्थान को स्वायत्ता देने के संबंध में अपने अनुशंसाओं से सरकार को अवगत कराये। लोकनायक के अलावे इस समिति में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ बलभद्र प्रसाद, मगध विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ के. के. दत्त, बिहार विधानसभा अध्यक्ष और सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के डिप्टी चेयरमैन श्री के.एस.वी. रमण इस समिति के प्रबुद्ध और सम्मानित सदस्य बनाए गए थे। सलाहकार समिति की अनुशंसाओं पर आधारित विधेयक अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल स्टडीस बिल 1963 बिहार विधान सभा में पेश किया गया किन्तु चंद समाजवादी नेताओं की दलीलों की वजह से यह बिल पारित होने से रह गया। यहाँ यह बात गौर करने की थी कि यद्धपि सलाहकार समिति का नेतृत्व उस समय के सबसे कद्दावर सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण के जिम्मे था तथापि प्रवर समिति और सदन में भी इस विधेयक पर सबसे अधिक हल्ला सोशलिस्ट पार्टी के अन्य धड़ों के नेताओं ने ही मचाया।

20 फरवरी 1964 को इस विधेयक पर चर्चा के दौरान कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस सलाहकार समिति का पुनर्गठन की मंशा को स्पष्ट करते हुए बताया कि–“इस संस्था के सलाहकार समिति में ऐसे लोग रखे गए हैं जो इस संस्था को सही सलाह दें। श्री जयप्रकाश नारायण इस संस्था के काम में बड़ी दिलचस्पी लेते हैं यह संस्था और ज्यादा काम कर सके, इसके लिए यह विधेयक इस सदन के समक्ष रखा गया है। हमारे साथी श्री कपिलदेव सिंह, श्री कर्पूरी ठाकुर और श्री तेज नारायण झा ने सुझाव दिया है कि इस विधेयक को इसी सत्र में पारित करने की कोशिश की जाये और हमारे श्री जयप्रकाश नारायण की भी यह ख़्वाहिश है कि सरकार की ओर से जल्द से जल्द इसमें सहायता मिलनी चाहिए। इसके लिए मैं यह निवेदन करूंगा कि प्रवर समिति को अपना प्रतिवेदन देने के लिए जितना कम समय दिया जाये उतना ही अच्छा होगा। मैं आपसे निवेदन करूंगा कि अप्रैल महीने में समय देंगें ताकि यह विधेयक कानून का रूप धरण कर ले। अंत में मैं इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि इसमें किसी तरह का राजनीति का सवाल नहीं उठाना चाहिए। मैं समझता हूँ कि जिस व्यक्ति के नाम पर इस संस्था का निर्माण किया हुआ है उनके बारे में यदि हमलोग कहें कि राजनीति के ख्याल से किया गया है तो उस व्यक्ति के प्रति हमलोग वफादारी नहीं करेंगें। हमलोग चाहते हैं कि इस संस्था के द्वारा अच्छा काम हो। इसके लिए जो भी नाम आप रख दें मगर उसके पीछे राजनीतिक धारा नहीं रखना चाहिए          

कृष्ण बल्लभ बाबू की इच्छा थी कि प्रवर समिति जल्द से जल्द यानि 30-31 मार्च तक अपना प्रतिवेदन दे दे जिस पर अप्रैल में सदन में एक-दो दिन का समय देकर इस विधेयक को पास करा लिया जाये ताकि श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा की जन्म-जयंती यानि 18 जून को सरकार इसकी विधिवत घोषणा कर देश के इस महान सपूत के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सके। किन्तु यह होना न था। विविध कारणों से यह मामला प्रवर समिति के बीच ही अगले दो माह तक घूमता रहा और अंततः 20 अप्रैल 1964 को विधान सभा के सत्र का अवसान हो गया। इस कशमकश में ही अनुग्रह नारायण सिन्हा की जन्म-तिथि का दिन आया और चला गया। इसी प्रकार उनकी पुण्य-तिथि यानि 5 जुलाई का दिन भी बीत गया।

अंततः बिहार विधानसभा की तीसरी सभा का सातवाँ सत्र 20 जुलाई 1964 को आहूत हुआ और इसी दिन कृष्ण बल्लभ बाबू ने प्रवर समिति द्वारा यथा प्रतिवेदित विधेयक सदन के पटल पर रखा। एक बार पुनः विपक्ष विधेयक में कतिपय संशोधनों की चर्चा में लग गया और इसे पुनः प्रवर समिति के पास भेजने का सुझाव रखा। स्पष्ट था विपक्ष टालमटोल की नीति अपना रहा था। 21 जुलाई को कृष्ण बल्लभ बाबू जब इस वाद-विवाद पर बोलने के लिए खड़े हुए तो वे और दिनों की अपेक्षा संयत दिखे। कामदेव बाबू को इंगित करते हुए उन्होंने अपना अभिभाषण की शुरुआत की। कहा- कामदेव बाबू ने जो प्रस्ताव किया है उसपर मैं बहुत अधिक नहीं कहना चाहता हूँ। मैंने कहा था कि प्रवर समिति ने जो सिफारिश की है उन्हीं सिफारिशों के दायरे में उनकी समालोचना होनी चाहिए।...पर मुहे दुख है कि जो सिफारिशें की गयी हैं उनको मद्देनजर रखते हुए उन्होंने कोई बात नहीं कही। बहुत सारी बातें उन्होंने की और मुझे दिक्कत है कि उन बातों को मैं समझ नहीं सका क्योंकि उन बातों का कोई संबंध प्रवर समिति की सिफारिशों से नहीं है। एक किस्सा जो मैंने लड़कपन में पढ़ा था  वह मुझे याद आ गया है। किसी नवीस को कहा गया कि खत लिख दो, तो उसने कहा कि मेरे पैरों में दर्द है अतः खत नहीं लिखेंगें। दर्द पैर में है तो खत लिखने में क्या दिक्कत है? उसने कहा कि यह इसलिए क्योंकि मुझे खुद जाकर इसे पढ़ना पड़ेगा। जो इन्होंने (कामदेव सिंह) कहा उसे वे खुद समझते हैं, मैं नहीं समझता हूँ यह हमारी कमजोरी है। आपने यह भी कहा कि इस इंस्टीट्यूट ने अभी तक क्या काम किया। मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि इस इंस्टीट्यूट में अर्थशास्त्र विषय पर गहन चिंतन मनन होता है। इस बिल का मकसद यही है कि इसे अलग बॉडी बना दिया जाये। अलबत्ता सरकार के नुमाइंदे इसमें रहें ताकि सरकार से इसे फ़ंड मिलता रहे और (स्वायत्त होने के कारण) बाहर से भी इसे फ़ंड मिल सके। गवर्नमेंट जनता की प्रतिनिधि है और कंट्रोल के लिए इसमें उसका प्रतिनिधि रहे। इसलिए मैं समझता हूँ कि जिन संशोधनों की सिफारिश प्रवर समिति ने की है इस विधेयक का मकसद ज्यादा पूरा होता है। इसलिए मैं समझता हूँ कि यह विषय हाउस के समक्ष रहे।

अंततः 22 जुलाई 1964 को जब सभा पुनः बैठी तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने प्रवर समिति द्वारा प्रतिवेदित अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल स्टडीस बिल 1963 पुनः सदन में रखते हुए इसे पारित करने की अपील करते हुए सदस्यों का ध्यान उनके अनुग्रह बाबू की ओर दिलाया और कहा कि यह एक पवित्र संस्था है। यहाँ राजनीति का प्रवेश नहीं होना चाहिएइस अपील का यथोचित असर हुआ। विपक्षी नेताओं का हृदय पसीजा और यह बिल पारित हुआ। इस प्रकार अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल स्टडीस को स्वायत्ता प्रदान करने वाला यह विधेयक पुनः प्रवर समिति में जाने से रह गया और बिहार विधान सभा में पारित हुआ। 8 अक्तूबर 1964 को इससे संबन्धित गज़ट नोटोफिकेशन बिहार सरकार ने जारी किया।                                                                                                                                                                                                        

(साभार: (i) बिहार विधानसभा की कार्यवाही (ii) पॉलिटिक्स एंड गवर्नेंस इन इंडियन स्टेट्स – हरिहर भट्टाचार्य एवं सुब्रत मित्रा (iii) इंडिया विंस फ्रीडम- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (iv) मेरे संस्मरण- अनुग्रह नारायण सिन्हा (v)  इंट्रा-पार्टी कंफ्लिकट इन बिहार काँग्रेस- रामाश्रय राय)



   

1 comment:

  1. We are proud of these real sons of Bihar.Well done Raja Babu.Keep it up.

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