Friday, 14 May 2021

'हमारी विरासत, हमारी धरोहर:16: सोनवा के दो सोना- अब्दुल और कृष्णा: प्रोफेसर अब्दुल बारी एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (14/05/2021)

 

प्रोफेसर अब्दुल बारी
(1892-28 मार्च 1947)

कृष्ण बल्लभ सहाय
(31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)


सोन नदी पर सौ वर्ष पुराना अब्दुल बारी रेल-रोड पुल

यौमे ईद के मुक़द्दस मौके पर आज हम याद करते हैं सोन नदी के तट पर बसे कोइलवर के उन दो लायक सपूतों की जिनके पुरखे इसी कोइलवर के साकिन थे। ये दोनों ही शक्स मज़लूमों को उनका हक़ दिलाने के लिए ताउम्र जद्दोजहद करते रहे- चाहे वो मज़दूर रहा हो या फिर किसान, और दोनों ही ने इस संघर्ष में अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी- जी हाँ आज हम बात करेंगें - प्रोफेसर अब्दुल बारी और कृष्ण बल्लभ सहाय के सियासी सम्बन्धों की।

 

जब संसदीय सचिव ने सभा के उप-सभापति की सदन में वकालत की।

वाक़िआ 13 अक्तूबर 1939 को बिहार विधान सभा की कार्यवाही का है। पेशे से वकील सदन के नजीब मेम्बर सैय्यद मोहिउद्दीन अहमद ने सदन में स्थगन प्रस्ताव लाते हुए सदस्यों का ध्यान जमशेदपुर के टिस्को इस्पात संयंत्र में मज़दूर हड़ताल एवं उससे उत्पन्न कानूनी इंतेजाम की ओर दिलाते हुए इस पर बहस की मांग की। लगभग इसके साथ ही एक अन्य नजीब मेम्बर और दैनिक अखबार द सर्चलाइट के संस्थापक मोहम्मद युनूस ने भी इस अख़बार की 30 सितंबर की प्रति सदन में लहराते हुए जमशेदपुर में 28 सितंबर को घटित कांड पर बहस की मांग करते हुए स्थगन प्रस्ताव पटल पर रखने की इजाज़त सभापति से मांगी। इन दोनों ही मेम्बरान द्वारा जमशेदपुर इस्पात संयंत्र में चल रहे मज़दूर एहतिजाज (आंदोलन) में प्रोफेसर अब्दुल बारी की भूमिका पर भी सवालात उठाए। अब्दुल बारी उस वक़्त न केवल जमशेदपुर इस्पात संयंत्र में मज़दूर यूनियन के नेता थे वरन बिहार विधान सभा के सदस्य (चंपारण से) और सदन के नायब-सदर (उप-सभापति) भी थे। बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा की काँग्रेस सरकार पहली बार वजूद में आई थी।  

यहाँ यह बता देना मुनासिब होगा कि जंग-ए-आज़ादी से बिहार, बंगाल एवं ओड़ीशा के मज़दूरों को शामिल कराने में प्रोफेसर अब्दुल बारी का अहम योगदान रहा था- चाहे वो 1920-22 का असहयोग आंदोलन रहा हो या 1930-32 का सविनय अवज्ञा आंदोलन या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन। अब्दुल बारी ने पटना विश्वविद्यालय से परा-स्नातक किया था। महात्मा गांधी की ख़्वाहिश पर मौलाना मजरूल हक़ के सहयोग से 1921 पटना में बिहार विद्यापीठ की स्थापना हुई। 6 फरवरी को महात्मा गांधी इसके उदघाटन जलसे में शरीक होने कस्तूरबा गांधी और मौलाना मोहम्मद अली जौहर के साथ पधारे थे। मौलाना मजरूल हक़ बिहार विद्यापीठ के पहले कुलाधिपति, श्री ब्रजकिशोर प्रसाद पहले उप-कुलाधिपति और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद पहले प्रधानाचार्य मुंतखिब हुए। इसी विद्यापीठ में अब्दुल बारी साहब प्रोफेसर नियुक्त हुए थे। अपने जमाने में यह विद्यापीठ देस की गंगा-जमुनी संस्कृति का नायाब मिसाल था।

31 दिसंबर 1922 को गया अधिवेशन में काँग्रेस ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 (मोंटेग्यु चेम्सफोर्ड सुधार) के तहत काउंसिल चुनाव में शिरकत करने से मना कर दिया। किन्तु मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास को काँग्रेस का यह फैसला मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि सदन में रहकर सरकार की नीतियों का विरोध कर जंग-ए-आज़ादी को बेहतर सम्त प्रदान किया जा सकता है। फलतः उन्होंने उसी दिन टेकारी महाराज, जो मोतीलाल नेहरू के मुवक्किल थे, के महल में एक इजलास में काँग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी की स्थापना की घोषणा कर दी। 26 फरवरी 1923 को पटना में एक इजलास में इस पार्टी की बिहार इकाई के गठन का डगर खुला। छपरा के नारायण प्रसाद को बिहार इकाई का सदर (अध्यक्ष), प्रोफेसर अब्दुल बारी को सचिव और कृष्ण बल्लभ सहाय और हरनंदन सहाय सहायक सचिव नियुक्त हुए। यह पहला अवसर था जब कृष्ण बल्लभ बाबू और प्रोफेसर अब्दुल बारी एक-दूसरे के संपर्क में आए। यह संपर्क ताउम्र बना रहा। 9 मई 1923 को गया में हुई एक बैठक में बिहार इकाई का पुनर्गठन हुआ और डॉ अरुंजय सहाय वर्मा इसके सदर चुने गए और कृष्ण बल्लभ सहाय और अब्दुल बारी सचिव नियुक्त हुए। काँग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी जल्द ही बिहार में काफी मकबूल हुई। अवाम में इसके नेता काफी मारूफ़ हुए और प्रत्येक इलाके में अपनी पैंठ बनाने में सफल रहे। चंद्रवंशी सहाय एवं श्यामचरण (दोनों तिरहुत), जलेश्वर प्रसाद, गोरख प्रसाद, रामेश्वर लाल एवं बैद्यनाथ सहाय (सभी भागलपुर), राय हरिप्रसाद एवं पंडित विनोदानंद झा (दुमका), सैय्यद महमूद एवं खान बहादुर सरफराज हुसैन (पटना), मोहम्मद शफी दावूदी (मुजफ्फरपुर), बाबू अंबिका प्रसाद सिंह (शाहाबाद) दीप नारायण सिंह, कृष्ण प्रकाश सेन सिन्हा एवं बलदेव सहाय आदि इस पार्टी के प्रमुख नेता थे। बाद में श्रीकृष्ण सिन्हा भी इस पार्टी से जुड़े। इस विस्तृत नेतृत्व का ही कमाल था कि 1923 में हुए चुनाव में यह पार्टी बेमिसाल कामयाबी हासिल करने में सफल रही।   

बाद में डॉ राजेंद्र प्रसाद की सदारत में जब बिहार लेबर इंक्वाइरी कमिटी बनी तो डॉ प्रसाद ने प्रोफेसर बारी पर भरोसा किया और वे इस कमिटी के नायब सदर (उपाध्यक्ष) मुंतखिब हुए। इस कमिटी की रिपोर्ट 1940 में आई जो तब तक बिहार में मज़दूरों की स्थिति पर सबसे प्राधिकृत दस्तावेज़ था। बिहार लेबर इंकवाइरी कमिटी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद भी प्रोफेसर बारी मज़दूरों को कोई झूठी आस बंधाना नहीं चाहते थे। एक कड़े संघर्ष के लिए तैयार रहने का आहव्न करते हुए उन्होंने कहा था- इंक्वाइरी कमिटी हमारा हक़ दिलाएगी तो हम खुशी से खुद काम पर जाएंगें। काँग्रेस की वजह से हमें बहुत से चीज़ें मिल जावेगी, लेकिन इंक्वाइरी कमिटी अगर न करे तो ऐसी हालत में हम सोचेंगें कि हम लड़कर अपना हक़ लेंगें।    

प्रोफेसर बारी ने बिहार में मज़दूर इत्तिहाद (एकता) को पुख्ता करते हुए इसे एक सूत्र में पिरोया। अब तक मज़दूर ओडिया, आदिमवासी, एवं बंगाली गुट में बंटे थे। प्रत्येक गुट के अपने लीडर थे- ओडिया गुट की कयादत (नेतृत्व) जदुमणि मंगोराज और पी.के. मोहंती के हाथ था, बंगाली गुट की कयादत जे.एन. मित्रा करते थे जबकि आदिमवासी गुट डॉ जयपाल सिंह मुंडा के अधीन था। ऐसे में प्रोफेसर अब्दुल बारी ने इन गुटों को टाटा वर्कर्स यूनियन के झंडे तले 1937 में एकजुट किया जिसने इस सम्पूर्ण एहतिजाज को एक जबर्दस्त नज़रयाती मोड़ दिया। 1947 में अपने इंतकाल तक वे इस यूनियन के सदर रहे। प्रोफेसर बारी ने मज़दूरों में जिस इत्तिहादी (एकता) जुनून और पुख्तगी (परिपक्वता) के बीज बोये उसने मज़दूरों को सभी झंझावातों के सामने हिम्मत और साहस से अडिग रहने का इख्लाखी (नैतिक) बल प्रदान किया। प्रोफेसर अब्दुल बारी के तरक्की-पसंद कयादत में इस यूनियन ने कई दूरगामी फैसले लिए जो मज़दूर एहतिजाज के इतिहास में कालजयी साबित हुए। टिस्को की तारीख़ में पहला वसीक़ा (समझौता) 1937 में अब्दुल बारी की ही कयादत में ही हुआ। 1938 में झरिया में कोयला मज़दूरों से जब वे मुख़ातिब हुए तब उन्होंने मज़दूरों को मुल्क पर फ़क्र करने और स्वदेशी पर जान छिड़कने की अपील करते हुए जो कहा वो मज़दूरों का हौसला अफ़ज़ाई करने वाला था-हम जानते हैं कि आपको बहुत तकलीफ़ है। जब तक हम जिंदा रहें हम कोयले की खाद के जितने मज़दूर हैं उनको जिंदा कर के छोड़ेगें...जिंदा का मतलब यह है कि जैसे आज़ादी से हम चलते हैं ऐसे ही हमारे मज़दूर भाई भी चलें। वे मज़दूर एहतिजाज में सेवा-भाव एवं साहस का संचरण करने के हिमायती थे। वे कहा करते थे -आपलोगों में भक्ति नहीं है...हम तुम्हारे तकलीफ को जानते हैं। तुम्हारे ऊपर जो जुल्म है हम जानते है। तुमको थोड़ी मजदूरी मिलती है हम जानते हैं। तुमको खराब मकान रहने को है वो भी हम जानते हैं। तुमको पीने का पानी नहीं मिलता है वो भी हम जानते हैं। तुम्हें ठुकराया करते हैं ये भी हम जानते हैं। जरा सी बात पर नौकरी से बेदख़ल कर दिया जाता है यह भी हम जानते हैं। अगर हम अंग्रेजों का मुक़ाबला कर सकते हैं तो दुनिया के तमाम ताकतों का मुक़ाबला कर सकते हैं.... दुनिया में तो तमाम ज़ालिम मिटे हैं। आप ठान लें तो हम अंग्रेजों की हस्ती धूल में मिला देंगें

बहरहाल हम वापस 1939 के स्थगन प्रस्ताव की ओर लौटते हैं। जमशेदपुर इस्पात संयंत्र में हड़ताल के दौरान मज़दूरों के बीच हुई छिटपुट घटनाओं के बाद वहाँ के अनुमंडलाधिकारी ने कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) के तहत शहर में धारा 144 लगा दिया था। मोहम्मद सैय्यद मोहिउद्दीन ने अनुमंडल अधिकारी द्वारा शहर में धारा 144 लगाने की शक्ति पर प्रश्न करते हुए सदन से यह आग्रह किया कि वो इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए अधिकारी को आवश्यक दिशा-निर्देश जारी करे। उनकी इस मांग को मोहम्मद युनूस साहब का भी समर्थन था। विपक्षी मेम्बरानों की मांग पर सभापति राम दयालु सिंह ने उद्विग्न होकर बड़ी उम्मीद से ट्रेजरी बेंच की ओर देखा कि कोई आगे आकर सरकार का पक्ष रखे।

प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा (तब राज्य के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाते थे) एवं अन्य मंत्रियों की अनुपस्थिति में सरकार की ओर से जवाब देने की ज़िम्मेदारी एक बार पुनः कृष्ण बल्लभ सहाय के कंधे पर आन पड़ी। अनुमंडल अधिकारी, जमशेदपुर के निर्णय को जायज़ ठहराते कृष्ण बल्लभ बाबू ने स्पष्ट किया –महोदय, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत लागू यह आदेश न्यायिक आदेश है जिसके खिलाफ अदालत में अपील की जा सकती है। यह कार्यकारी आदेश नहीं है। अतएव इस पर इस सदन में निर्णय नहीं लिया जा सकता है। महोदय, यदि मेरे काबिल दोस्त यह बताते कि जमशेदपुर में पुलिस ने क्या अनुचित कार्रवाई की तो इस पर इस सदन में बहस संभव था। किन्तु मालूम होता है अनुमंडल अधिकारी के आदेश पर स्थगन प्रस्ताव लाकर वे इस सदन की सीमा लांघने की कोशिश कर रहे हैं। अतः स्थगन प्रस्ताव अस्वीकृत किया जाना चाहिए

सैय्यद मोहिउद्दीन अहमद: महोदय, एक शख्स जो स्वयं को मज़दूरों का नेता कहता है- प्रोफेसर अब्दुल बारी जिनका नाम है- वे मज़दूरों को काम पर लौटने से रोक रहे हैं। क्या यह भी इस सदन में बहस का मुद्दा नहीं है’?

कृष्ण बल्लभ सहाय: महोदय, मैं अब भी अपनी बात पर अड़ा हूँ। मेरे काबिल दोस्त ने ऐसी कोई दलील नहीं दी है जो मैं अपनी राय बदलने पर गौर करूँ। मेरी राय में मजदूर हड़ताल में प्रोफेसर अब्दुल बारी का रोल स्थगन प्रस्ताव के लिए माकूल वजह नहीं है। मोहिउद्दीन साहब दक्ष वकील होंगें पर यहाँ वे इस केस को दो वजहों से बचा नहीं पाएंगें- पहला तो उनका यह कहना कि जमशेदपुर में कानून व्यवस्था दुरुस्त नहीं है और दूसरा कि प्रोफेसर अब्दुल बारी मजदूरों को नेतृत्व देने में सक्षम नहीं हैं। पहले मुद्दे पर मैं उनसे यह पूछना चाहता हूँ कि यदि कानून व्यवस्था ठीक नहीं है तो धारा 144 लागू कर कानून व्यवस्था बहाल करने में क्या गलत है। और तो और इससे इसमें सरकार की संलिप्तता किस प्रकार सिद्ध होती है? कानून व्यवस्था एक दिन में तो नहीं बिगड़ा। मेरे काबिल दोस्त यह भी बताने में असफल रहे हैं कि मज़दूर आंदोलन से सरकार का क्या सरोकार है? अतः यह स्थगन प्रस्ताव रद्द किया जाना चाहिए

महोदय, अब मैं दूसरे मुद्दे पर आता हूँ। मेरे काबिल दोस्त ने मेरे अज़ीज़ मित्र प्रोफेसर अब्दुल बारी की योग्यता के बारे में बहुत कुछ कहा है। उनका मानना है कि वे मज़दूरों का नेतृत्व करने के काबिल नहीं हैं। सबों के अपने-अपने विचार हो सकते हैं किन्तु मैंने पाया है प्रोफेसर अब्दुल बारी ने मज़दूर आंदोलन को एक नई दिशा और गति प्रदान की है। वे मज़दूर नेतृत्व में एक स्वस्थ परंपरा स्थापित करने में सफल रहे हैं और उन्हें एकता की सूत्र में पिरोया है। प्रोफेसर बारी का सरकार से कोई वास्ता नहीं है। बेशक वे सदन के उप-सभापति हैं किन्तु उप-सभापति और सभापति किसी पार्टी का नहीं होता। अतः वे सरकार के अंग भी नहीं हैं। यदि मोहम्मद मोहिउद्दीन ने विगत विधानसभा की कार्यवाही का जरा सा भी अध्ययन किया होता तो उन्हें पता रहता कि मैंने इस मुद्दे को पहले भी स्पष्ट किया है कि उप-सभापति सरकार का अंग नहीं होता। यह एक सांविधिक पद है। अतः प्रोफेसर अब्दुल बारी सरकार के किसी भी निर्णय के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। इसी प्रकार उनके कार्यों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता। यह कहना गलत होगा कि प्रोफेसर अब्दुल बारी सरकार के प्रिय हैं। छोटानागपुर में तो प्रचलित यह है कि मोहम्मद मोहिउद्दीन सरकार के प्रिय हैं। 

कृष्ण बल्लभ बाबू का वक्तव्य समाप्त ही हुआ था कि सदन में एडवोकेट जनरल नमूदार हुए जिन्हें देखते ही मोहम्मद मोहिउद्दीन साहब अपनी सीट से उछल पड़े-महोदय, मेरी एडवोकेट जनरल महोदय से यह गुजारिश है कि वे कृष्ण बल्लभ बाबू की भूल सुधारे और स्पष्ट करें कि दंड प्रक्रिया संहिता के धारा 144  पर निर्गत आदेश कार्यकारी आदेश होता है न कि न्यायिक आदेश

सभापति महोदय की अनुमति से एडवोकेट जनरल ने हाईकोर्ट द्वारा बांका के गोविंद मारवाड़ी केस में 1928 में दिये गए फैसले की मिसाल देते हुए यह स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता के धारा 144 के तहत जारी आदेश एक न्यायिक आदेश होता है न कि कार्यकारी निर्णय और इसे अदालत में ही चुनौती दी जा सकती है न कि इस सदन में। यह आदेश अमूमन आपातकाल में ही जारी किया जाता है

इस तफ़सीर (व्याख्या) ने विपक्ष के स्थगन प्रस्ताव के किले को ही ध्वस्त कर दिया। इसके बाद सभापति को निर्णय लेने में कोई विलंब नहीं हुआ और विपक्ष के स्थगन प्रस्ताव को उन्होंने खारिज कर दिया।

यह वाक़िआ कृष्ण बल्लभ सहाय की विलक्षण प्रतिभा का एक छोटा सा उदाहरण है। उन्होंने वकालत नहीं पढ़ी थी किन्तु कानून का ज्ञान उनमें कूट-कूट कर भरा था। सदन में बहस के दौरान श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम वकील उनके इस ज्ञान के सामने नहीं टिक पाते थे। कानून की तफ़सीर में उन्हें जो महारथ हासिल थी वो किसी एडवोकेट जनरल अथवा एटॉर्नी जनरल के समकक्ष था। यह इस बात का प्रमाण है कि वे अपनी जिम्मेदारियों के प्रति किस हद तक समर्पित थे। सदन की कार्यवाही के दौरान व्यवस्था के किसी भी प्रश्न पर जवाब देने के लिए वे अपने मातहतों पर निर्भर नहीं रहते और सभापति को एसेम्बली की रुलिंग के बारे में समयस्फूर्त बता देते थे। बिहार को कभी उनसे बेहतर संसदीय सचिव नहीं मिला यह बात डंके की चोट पर कहा जा सकता है।

एक बात और- यह दीगर है कि इस बहस में प्रोफेसर अब्दुल बारी को कटघरे में उनके ही कौम के चंद फिरकापरास्त मुस्लिम लीगी नेताओं ने खड़ा किया था जबकि उनकी वकालत शिव भक्त कृष्ण बल्लभ बाबू कर रहे थे। दरअसल, कृष्ण बल्लभ बाबू वास्तविक काँग्रेस के वैसे पारंपरिक सेक्युलर नेता थे जिनके लिए उनका ईमान ही सर्वोपरि था। किसी का धर्म और मज़हब न तो प्रोफेसर अब्दुल बारी के लिए और न ही कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए कोई मायने रखता था। यह इन दोनों शख्सियत की पहली समानता थी। आज जब धर्मनिरपेक्षता का मखौल उड़ाया जाता है तब कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे नेताओं की बरबस याद हो आती है जिन्होंने अपने लहू से इस देश में धर्मनिरपेक्षता की पौध को सींचा था जिसे पहले विखंडित और विवादित काँग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति और आज हिन्दू बहुसंख्यकवाद के द्वय झंझावातों ने मानो लील लिया हो। कहाँ गए वो लीडर और कहाँ गई वो उसूलों वाली सियासत।   

हम जमशेदपुर में चल रहे मज़दूर एहतिजाज पर वापस लौटते हैं। ज्ञातव्य रहे कि प्रोफेसर अब्दुल बारी से पहले जमशेदपुर मज़दूर यूनियन के लीडर सुभाष चंद्र बोस रहे थे। प्रोफेसर अब्दुल बारी सुभाष बोस की ख़्वाहिशों को मुकम्मल मोकाम तक पहुँचाने के लिए हमेशा जद्दोजहद करते रहे। काँग्रेस के भीतर मज़दूरों की हक़ का विरोध करने वाले कतिपय तत्वों के प्रति आगाह करते हुए उन्होंने मज़दूरों से कहा था- हम काँग्रेस सरकार से जानना चाहते हैं कि विवेकहीन लाठी-चार्ज की क्या वजह थी? हम बाबू राजेंद्र प्रसाद से पूछेंगें काँग्रेस में वही पार्टी आगे चलने वाली है जो ज़ालिमों से मज़दूरों को बचाने वाली है। अगर हम इस काँग्रेस सरकार के जमाने में भी लाठी खाएं, जेल जाएँ, तो हमें फ़क्र है। आज ऐसे-ऐसे अफसर उनके पास हैं जो बिना सोचे-समझे लाठी-चार्ज करते हैं। या तो राज्यपाल बहुत मजबूत है या यह काँग्रेस सरकार बहुत कमजोर है। जिस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू किसानों के हक़ के लिए शिद्दत से लड़ते रहे उसी तरह प्रोफेसर अब्दुल बारी आख़िर तक मज़दूरों की हक़ के लिए संघर्षरत रहे। इन दोनों हस्तियों में निकटता की यह पहली बड़ी वजह थी।  यह इन दोनों हस्तियों में दूसरी समानता थी।  

एक दशक लंबी चली जद्दोजहद और 1945-46 में पुनः हड़ताल पर जाने के अल्टिमेटम के बाद अंततः फरवरी 1948 में यूनियन एवं प्रबंधन के बीच समझौता हुआ। किन्तु तब तक न सुभाष चन्द्र बोस हमारे बीच थे और न ही प्रोफेसर अब्दुल बारी इस सफलता को देखने के लिए जीवित रहे थे। इस मुआहिदा के अनुसार न केवल मज़दूरों के लिए न केवल उच्चतर वेतनमान तय हुआ वरन बेहतर कार्यस्थल एवं अन्य स्वास्थ्य एवं बोनस आदि अन्य सुविधाएं भी सुनिश्चित हुई। यह भी निर्णय लिया गया कि एक संयुक्त संगठन स्थापित किया जाये जिसमें यूनियन और मैनेजमेंट दोनों के प्रतिनिधि रहें जो पारस्परिक हितों का ध्यान रखते हुए कालांतर में परस्पर मशवरा से समस्याओं का निदान करेंगें और प्रत्येक मुद्दे पर एक दूसरे को आगाह कराते रहेंगें ताकि इनका निबटारा बगैर हड़ताल संभव हो सके।

चालीस के दशक में प्रोफेसर अब्दुल बारी के सियासी कद में दिनोदिन बढ़ोतरी हो रही थी। 1946 में बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी के सदर बने। यह भी माना जा रहा था कि केंद्र अथवा राज्य में ही उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दी जाएगी। किन्तु अफसोस प्रोफेसर बारी बहुत दिन तक हमारे बीच नहीं रहे। 28 मार्च 1947 को महात्मा गांधी के निर्देश पर जमशेदपुर से पटना आने के क्रम में फतुवा रेल्वे गुमटी पर तैनात पुलिस टीम ने उनकी गाड़ी को रोकने का इशारा किया। गाड़ी का चालक इशारा समझ नहीं पाया और गाड़ी आगे बढ़ा ले गया। गश्ती दल का एक गोरखा सिपाही ने गाड़ी पर फायर कर दिया। एक गोली प्रोफेसर अब्दुल बारी को लगी और वे वहीं शहीद हो गए। यही प्रोफेसर अब्दुल बारी की शहादत की आधिकारिक ख़बर है हालांकि इसके पीछे किसी साज़िश से  इंकार नहीं किया जा सकता। किसानों की हक़ के लिए लड़ते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू पर भी इसी साल यानि सितंबर 1947 में कातिलाना हमले हुए थे जिसमें वे बाल-बाल बच पाये थे। मज़लूमों के लिए जान तक कुर्बान कर देना- यह प्रोफेसर अब्दुल बारी और कृष्ण बल्लभ बाबू में तीसरी समानता है। सत्ताईस साल बाद कृष्ण बल्लभ बाबू पुनः एक षड्यंत्र का शिकार हुए जब 1974 में एक विवादास्पद कार हादसे में उनकी अस्वाभाविक और असामयिक मृत्यु हुई।

प्रोफेसर अब्दुल बारी की बेवक़्त मौत से महात्मा गांधी हतप्रभ थे। वे उनके परिवार को ढांढस बंधाने और उनके नमाज़े जनाज़ा में शामिल होने उनके पैतृक गाँव कोइलवर (आरा) पहुंचे थे। बताते चले कि प्रोफेसर अब्दुल बारी के वालिद मोहम्मद कुर्बान अली कोइलवर से पटना में जहानाबाद के किनसूआ गाँव में आकर बस गए थे जहां अब्दुल बारी का जन्म हुआ था। यह भी एक विचित्र संजोग है कि कोइलवर ही कृष्ण बल्लभ बाबू का भी पैतृक गाँव है। उनके पिता मुंशी गंगा प्रसाद कोइलवर से पटना के निकट पुनपुन में आ बसे थे जहां शेखपुरा गाँव में कृष्ण बल्लभ बाबू का जन्म हुआ था। यह अब्दुल बारी और कृष्ण बल्लभ बाबू के जीवन की चौथी समानता है। आज भी सोन नदी पर आरा को पटना से जोड़ने वाले रेल-रोड पुल को प्रोफेसर अब्दुल बारी पुल के नाम से जाना जाता है। पटना के पीरमोहानी कब्रिस्तान में प्रोफेसर अब्दुल बारी के नश्वर शरीर को सुपुर्दे-खाक किया गया। उन्हें विदा करते हुए गांधीजी के ये शब्द आज भी ज़ेहन में कौंध जाते हैं-आज हमने एक बहादुर फ़कीर को खो दिया है


साभार: (i) बिहार विधान सभा की कार्यवाही 1937-1939, (ii) लॉस्ट मुस्लिम हेरिटेज ऑफ बिहार, (iii) द पॉलिटिक्स ऑफ लेबर मूवमेंट- दिलीप सीमोन (iv) अब्दुल बारी- विकिपीडिया, (v) टाटा वर्कर यूनियन का आधिकारिक वैबसाइट 

 


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