डॉ राजेंद्र प्रसाद |
कृष्ण बल्लभ सहाय |
1919 में संत कोलम्बा कॉलेज से स्नातक के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू आगे की पढ़ाई के लिए पटना आ गए। लगभग इसी समय महात्मा गांधी के आहव्न पर विद्यार्थियों ने विदेशी स्कूल एवं कॉलेज का बहिष्कार शुरू किया। किन्तु विद्यार्थियों की पढ़ाई की हानि न हो अतः काँग्रेस के तमाम नेता विभिन्न राज्यों में स्वदेशी स्कूल एवं कॉलेज चलाने लग गए। इसी क्रम में कृष्ण बल्लभ बाबू पहली बार डॉ राजेंद्र प्रसाद के संपर्क में आए। डॉ राजेंद्र प्रसाद एवं अन्य कांग्रेसी पटना में नेशनल कॉलेज में विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद, जो इस कॉलेज के प्रधानाध्यापक थे, ने कृष्ण बल्लभ बाबू को यहाँ अँग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेवारी दी। इसी कॉलेज में पढ़ाते हुए कृष्ण बल्लभ काँग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं के संपर्क में आए जो यहाँ विभिन्न विषय पढ़ा रहे थे। इनमें प्रमुख थे आचार्य बद्रीनाथ वर्मा (उप- प्रधानाध्यापक), बाबू जगत नारायण लाल (अर्थशास्त्र), बाबू प्रेम सुंदर दास (दर्शनशास्त्र), बिरेन्द्रनाथ सेनगुप्ता(इतिहास), ज्ञानदा प्रसन्न साहा(राजनीतिशास्त्र), बाबू फूलदेव सहाय वर्मा एवं रामचरितर सिंह (रासायन शस्त्र), काशीनाथ प्रसाद एवं रामदास गौड़ (भौतिकी), अरुणोदय प्रामाणिक (गणित), पंडित राम निरीक्षण सिंह (संस्कृत) एवं प्रोफेसर अब्दुल बारी, मौलवी तमन्ना एवं मौलवी मोहम्मद काजीर मुनीमी (उर्दू)। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति और सर्वधर्म समभाव का यह कॉलेज उत्कृष्ट उदाहरण था। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, पंडित नेहरू, डॉ राजेंद्र प्रसाद और काँग्रेस ने जिस धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था का सपना देखा था यह कॉलेज उसका जीता जागता उदाहरण था। क्या हम आज ऐसी धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था के बारे में सोच भी सकते हैं?
इन युवाओं के प्रति डॉ राजेंद्र प्रसाद के हृदय में असीम प्रेम एवं वत्सल भाव था। ये लोग उनके एक इशारे पर अपनी पढ़ाई छोडकर उनके पीछे आए थे अतः उनपर भारी जिम्मेवारी थी। तब कॉंग्रेस का कार्यालय बुद्ध मार्ग पर अवस्थित था। कृष्ण बल्लभ बाबू के निकटस्त शशि भूषण लाल बताते हैं कि एक दिन प्रातः राजेंद्र प्रसाद इन छात्रों से मिलने कॉंग्रेस कार्यालय आए। उन्हें देखकर सभी युवा खड़े हो गए। युवा जोश से भरे इन अबोध युवाओं के मासूम चेहरे देखकर राजेंद्र प्रसाद द्रवित हो उठे। पढ़ने की उम्र में ये युवा भविष्य दांव पर लगाकर स्वांतत्रता संग्राम में कूद पड़ने को आतुर थे यह सोचकर राजेंद्र प्रसाद की आँखों में आँसू आ गए और वे हठात रो पड़े। उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कृष्ण बल्लभ ने कहा था ‘कि यह उनका सोचा-समझा निर्णय है जिसके लिए उन्हें (राजन बाबू) को कदापि ग्लानि होनी चाहिए। चूंकि यह उनका अपना निर्णय है अतः इस निर्णय के ज़िम्मेवार भी वही हैं।’- त्वरित निर्णय लेना और जिद की हद तक उन निर्णयों पर कायम रहना कृष्ण बल्लभ बाबू की खासियत थी। अपनी इस ज़िद के कारण कृष्ण बल्लभ बाबू को पटना की सियासी गलियारों में आज भी याद किया जाता है। एक बार जमींदारी उन्मूलन का निर्णय ले लिया तो फिर चाहे आसमान गिर पड़े वे इससे टस से मस न हुए- जमींदारों के लठैतों के लाठी खाये, और यहाँ तक कि अपने ही राजनैतिक गुरु डॉ राजेंद्र प्रसाद से भी उलझ पड़े। और तो और सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी खरी-खरी सुना दिया। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने इसी रूखी ज़बान के लिए भी जाने जाते थे।
1920 में असहयोग आंदोलन से लेकर 1947 तक, यानि जब तक देश स्वतंत्र हुआ, कृष्ण बल्लभ बाबू प्रत्येक मुद्दे पर डॉ राजेंद्र प्रसाद से राय मशवरा करते थे और जैसा डॉ राजेंद्र प्रसाद निर्देश देते कृष्ण बल्लभ वैसा ही करते। दरअसल छोटानागपुर में कॉंग्रेस के प्रचार-प्रसार और इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता संग्राम को प्रभावशाली ढंग से सफल बनाने में डॉ राजेंद्र प्रसाद कृष्ण बल्लभ बाबू पर निर्भर रहते- चाहे वो किसान आंदोलन हो, रामगढ़ में कॉंग्रेस का अधिवेशन हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या फिर भारत छोड़ो आंदोलन-कृष्ण बल्लभ बाबू छोटनागपुर में कॉंग्रेस का चेहरा थे और उन्हें डॉ राजेंद्र प्रसाद का वरदहस्त प्राप्त था। इसी प्रकार कॉंग्रेस द्वारा चलाये जा रहे सामाजिक उत्थान के विभिन्न कार्य यथा हरिजन कल्याण, आदिवासी कल्याण या फिर खादी के प्रचार-प्रसार के कार्य भी कृष्ण बल्लभ बाबू डॉ राजेंद्र प्रसाद के दिशा निर्देशों के अनुसार करते। इस दौर में कृष्ण बल्लभ बाबू छोटानागपुर में कॉंग्रेस के सबसे प्रभावशाली झंडाबरदार के रूप में उभरे, जिसका श्रेय जितना उनके प्रतिभा को जाता है उतना ही डॉ राजेंद्र प्रसाद को भी जाता है । कृष्ण बल्लभ बाबू इस क्षेत्र में विभिन्न स्रोतों से कॉंग्रेस को मिलने वाले चंदे के एक-एक पैसे का हिसाब रखते और किसी प्रकार का कोई भी खर्च करने से पहले डॉ राजेंद्र प्रसाद की अनुमति अवश्य लेते। डॉ राजेंद्र प्रसाद एवं कृष्ण बल्लभ बाबू के बीच के पत्राचार, जो अब राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित हैं, से यह विदित होता है। पटना में डॉ राजेंद्र प्रसाद या तो सदाकत आश्रम में रहते अथवा फिर कदमकुआं मोहल्ले में, जो तब भी और आज भी कायस्थों का गढ़ रहा है। कदमकुआं में ही जयप्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री की बहन और कृष्ण बल्लभ बाबू के छोटे भाई दामोदर बाबू, जो पेशे से डॉक्टर थे, भी रहते थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद जब कदमकुआं आते डॉ दामोदर प्रसाद से अपना मेडिकल चेक-अप अवश्य करवाते, जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया है।
स्वतन्त्रता के बाद कृष्ण बल्लभ बिहार सरकार में राजस्व मंत्री बने। 22 अगस्त 1946 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिखा उनका पत्र भूमि सुधार पर उनके दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। कृष्ण बल्लभ बाबू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को सूचित किया कि जमींदारी उन्मूलन उनकी प्राथमिकता है। तब डॉ राजेंद्र प्रसाद से इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। इसी वर्ष कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार विधान सभा के पटल पर जमींदारी उन्मूलन से संबन्धित बिल प्रस्तुत किया जिससे जमींदारों में हड़कंप मच गया। जमींदारों का एक प्रतिनिधि मण्डल डॉ राजेंद्र प्रसाद से मिला और इस बिल को वापस लेने के लिए उन पर दवाब बनाने लगा। 27 अप्रैल 1947 को लिखे अपने पत्र में राजेंद्र प्रसाद ने लगभग घुड़कते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू से जवाब तलब किया ‘मैं जमींदारी उन्मूलन की बात समझ सकता हूँ। कॉंग्रेस ने इसे अपने कार्यक्रम में रखा भी है। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हम जमींदारों को पुनर्वास का मौका दिये बिना और बिना वाजिब मुआवजा के उन्हें उनकी संपत्ति से बेदखल कर दें। यह समस्त प्रांत के आर्थिक ढांचे को प्रभावित करेगा। अतः इस पर सोच-समझ कर आगे बढ़ने की ज़रूरत है।’ कृष्ण बल्लभ बाबू का जवाब था-‘जहां तक मेरा मानना है यह बिल कॉंग्रेस के पुनर्वास के लिए अत्यधिक आवश्यक है। कॉंग्रेस ने जनता जनार्दन से जो वायदे कर रखे हैं उसके मद्देनजर इसे लागू करना हम सब की जिम्मेवारी है।’ 1 मई 1947 को लिखे इस जवाब के साथ ही कृष्ण बल्लभ बाबू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को जमींदारी उन्मूलन बिल की एक प्रति भी भिजवा दिया। कृष्ण बल्लभ बाबू व्यवहार की इसी बेमुरव्वतता, उद्दंडता, कठोरता किन्तु कर्तव्य-निष्ठा और कर्म के प्रति धर्म-निष्ठा के लिए जाने जाते थे।
अंततः काफी उठापटक के बाद, संविधान में संशोधन के उपरांत ही, जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो पाया। (अग्रेरियन रिफ़ार्म फ्राम अबव एंड बीलो –अरविंद दास व अन्य संदर्भ)
किन्तु इस वाद-विवाद से यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा गलत होगा कि जमींदारी उन्मूलन पर वैचारिक मतभेद इन दोनों महापुरुषों के बीच किसी प्रकार का मनभेद उत्पन्न करने में सफल रहा होगा। राजनैतिक मतभेद अपनी जगह थी, व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह थे। सितंबर 1947 में कृष्ण बल्लभ सहाय पर जमींदारों ने जब प्राणघातक हमले करवाए और एक सड़क दुर्घटना में वे बुरी तरह घायल हुए। तब डॉ राजेंद्र प्रसाद इस घटना से बहुत ही क्षुब्ध हुए और कृष्ण बल्लभ बाबू की सही-सलामती के लिए व्यग्र हो उठे। डॉ प्रसाद तब दिल्ली में थे जब उन्हें यह सूचना मिली। कृष्ण बल्लभ बाबू से सीधे फोन अथवा पत्राचार करने के बजाय उन्होंने श्री कृष्ण सिन्हा से फोन पर बात कर कृष्ण बल्लभ बाबू के कुशलक्षेम की जानकारी ली। संभवतः कृष्ण बल्लभ बाबू को पत्र लिखने में उन्हें संकोच हुआ क्योंकि कदाचित उन्हें भी घटनाचक्र के इस प्रकार करवट लेने का अंदेशा नहीं था। फोन पर बात करने के पश्चात श्री कृष्ण सिन्हा को पत्र लिखकर भी उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू के बारे में पूछताछ की- ‘I learnt that Krishna Ballabh had an accident. I am anxious about him and I shall be obliged if you drop a line to tell me how he is now.’ पत्र लिखकर वे श्री कृष्ण सिन्हा से कृष्ण बल्लभ बाबू के स्वास्थ्य लाभ के बारे में लगातार पूछा करते थे। 16 सितंबर 1947 को उनके निजी सचिव ने कृष्ण बल्लभ बाबू को डॉ प्रसाद की चिंता से अवगत कराते हुए लिखा ‘Rajen Babu has been very much concerned to hear of your motor accident. Two days ago a messenger was sent to Ranchi and he requested Sri Babu to let him know about you. He desired me to request you to send him news about yourself how you met with the accident and how you are progressing. If you cannot do so yourself I shall be grateful if you will ask somebody else to write for you. For the last ten days Babuji is also down with a serious attack of asthama….’
कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते उससे पहले ही 28 फरवरी 1963 को डॉ राजेंद्र प्रसाद का स्वर्गवास हो गया। उनका जाना कृष्ण बल्लभ बाबू की व्यक्तिगत क्षति थी। मुख्यमंत्री बनने पर कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने राजनैतिक गुरु की स्मृति में पटना संग्रहालय में डॉ राजेंद्र प्रसाद कक्ष का निर्माण करवाया जहां उन्होंने इस महापुरुष की थाती को सँवारने का प्रयास किया। यह एक शिष्य की अपने गुरु के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि थी।
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