पिछले दिनों हजारीबाग जाना हुआ। उद्देश्य था
काँग्रेस मैदान एवं कार्यालय, जिसे अब कृष्ण बल्लभ
आश्रम कहते हैं, में कृष्ण बल्लभ सहाय के संबंध में जानकारी
एकत्रित करना। इस स्थान का अधिग्रहण और यहाँ अवस्थित कार्यालय की स्थापना कृष्ण
बल्लभ बाबू ने किया था। 1966 में इस परिसर का उदघाटन श्रीमती इन्दिरा गांधी के
हाथों हुआ था। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में ही कृष्ण बल्लभ बाबू ने सदाकत आश्रम का
भी पुनरुद्धार करवाया था। यह कहा जा सकता है कि दक्षिण बिहार विशेष कर छोटानागपुर
क्षेत्र, जो अब झारखंड राज्य है, में
स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के संगठन को ईंट दर ईंट जोड़ने और खड़ा करने
वाले कृष्ण बल्लभ सहाय ही थे।
1921 में असहयोग आंदोलन से लेकर 1947 तक कृष्ण
बल्लभ बाबू ने काँग्रेस को गाँव-गाँव तक पहुंचा दिया। वे दक्षिण बिहार के प्रत्येक
ज़िला, अनुमंडल एवं प्रखण्ड स्तर तक काँग्रेस कार्यालय स्थापित करने को
कृत-संकल्प थे। उनका ध्येय था कि हर गाँव में कम से कम एक
परिवार ऐसा हो जो काँग्रेस की ध्वजा अपने घर के परकोटे पर फहराने का हिम्मत
जुटाये। इन परिवारों का भरण-पोषण का जिम्मा काँग्रेस का होता। इन्हें प्रत्येक माह
एक छोटी रकम बतौर वजीफा मिलता जिसे कृष्ण बल्लभ बाबू डॉ राजेंद्र प्रसाद की सहमति
से काँग्रेस के फ़ंड से भुगतान करते थे। ये वो दौर था जब देश और काँग्रेस एक दूसरे
के पर्याय थे।
1921 में अँग्रेजी विषय में स्नातक करने एवं
पूरे कलकत्ता विश्वविद्यालय में अव्वल आने के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू चाहते तो सरलता
से आई.सी.एस. बन अंग्रेजों का पिट्ठू बन अपनी ही प्रजा से हुकुम-हुज़ूरी करवा सकते
थे। किन्तु उन्हें यह गवारा नहीं था। उन्होंने दर-दर भटकना स्वीकार किया और अवाम
को स्वतन्त्रता संग्राम में सहयोग को प्रेरित करते रहे। उनकी कमाई यही रही कि
उन्हें अवाम का विश्वास हासिल हुआ। ऐसे कई प्रसंग हैं जब आमजन से उन्हें काँग्रेस
कार्यालय स्थापित करने क लिए भूमि दान में मिले। वर्ष बयालीस के एक पत्र का संदर्भ
है जिसमें डोमचांच का एक किसान काँग्रेस कार्यालय के लिए आवश्यक जमीन सिर्फ इस
शर्त पर मुहैया करवाया कि इसे डॉ राजेंद्र प्रसाद स्वीकार करें। कृष्ण बल्लभ बाबू
ने डॉ प्रसाद को पत्र लिख कर उस किसान की मंशा से उन्हें अवगत कराया। फिर डॉ
प्रसाद की सहमति से वो भूमि का टुकड़ा प्राप्त हुआ जिस पर आज भी काँग्रेस कार्यालय
स्थापित है। इसी प्रकार दक्षिण बिहार के विभिन्न जिलों में यथा सिंहभूम (कदमा एवं
चक्रधरपुर), गिरिडीह (राजधनवार),
दुमका (उद्योगपति रामजीवन हिम्मत सिंघका द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को गिफ्ट डीड
से हस्तांतरित), देवघर (उद्योगपति द्वारका प्रसाद गुरगुटिया
द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को गिफ्ट डीड से हस्तांतरित), धनबाद, डाल्टनगंज (पलामू), पाकुड़,
लोहरदग्गा (प्रसिद्ध उद्योगपति शिव प्रसाद साहू द्वारा दान दिया गया जहां काँग्रेस
कार्यालय का उदघाटन कृष्ण बल्लभ बाबू ने किया), कोडरमा (डोमचांच), गोड्डा (पोरियाहाट), चतरा (चतरा एवं हंटरगंज)आदि
स्थानों पर आज जो काँग्रेस कार्यालय विधमान हैं वे सभी उसी दौर के हैं जब कृष्ण
बल्लभ बाबू छोटानागपुर क्षेत्र में काँग्रेस एवं स्वतन्त्रता संग्राम को खड़ा कर
रहे थे। आज इनमें से बहुतों के कागजात उपलब्ध नहीं हैं। नतीजतन इनमें से कई पर
विवाद चल रहे हैं क्योंकि इन पर अवैध कब्जा हो रखा है। यह भी विधि की विडम्बना है
कि आज उन्हीं कृष्ण बल्लभ बाबू का पौत्र (मनोज सहाय) इन काँग्रेस कार्यालयों
पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।
इतिहास पर नज़र डालें तो यह विदित होगा कि ये
संपत्ति तो किसानों, स्थानीय लोगों और
उद्योगपतियों ने महात्मा गांधी एवं डॉ राजेंद्र प्रसाद के नाम काँग्रेस को सौंपा
था। इस पर आज की इन्दिरा काँग्रेस का दावा कितना सही है यह विवाद का विषय है, क्योंकि जिस काँग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी उसे भारतीय राष्ट्रीय
काँग्रेस कहा गया। इसी काँग्रेस ने स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी। कृष्ण बल्लभ
बाबू इसी अविभाजित काँग्रेस के नेता थे। मृत्युपर्यंत वे एकीकृत काँग्रेस के सदस्य
बने रहे। इसी मूल काँग्रेस में बने रहने और इन्दिरा काँग्रेस की मातहति ना करने के
कारण ही वे राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार हुए।
आज जो काँग्रेस है वो दरअसल इन्दिरा काँग्रेस
है जिसकी स्थापना ही 1979-80 में इन्दिरा गांधी द्वारा किया गया। 1969
के बाद यह दूसरा अवसर था जब इडिरा गांधी ने खुद ही इस ऐतिहासिक
पार्टी को तोड़ उसे कमजोर किया। किन्तु 1980 के बाद तो काँग्रेस पारिवारिक संपत्ति ही
बन गयी। अतः विचार करने वाली बात है कि इन्दिरा काँग्रेस कैसे मूल काँग्रेस के
विरासत की हकदार हो गयी? क्या इसका निर्णय निर्वाचन आयोग के
जिम्मे छोड़ा जा सकता है? जिस विभाजित काँग्रेस का जन्म ही 45
वर्ष पूर्व हुआ वो 2025 में अपना 84वां अधिवेशन कैसे मना सकती है, जैसा पिछले दिनों प्रचारित किया गया। दूसरी ओर यदि ऐसा है तो काँग्रेस को
इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए कि वो पारिवारिक काँग्रेस तक सीमित रहना चाहती है
अथवा अपनी पुरानी पहचान पर वापस जाना चाहती है। उस स्थिति में में उसे अपने नाम से
इन्दिरा शब्द हटा लेना चाहिए। साथ ही उसे मूल
काँग्रेस के सिद्धांतों पर चलने का संकल्प लेना चाहिए।