इतिहास गवाह है राष्ट्रहित बहुधा भिन्न-भिन्न
विचारधारा के व्यक्तियों को भी एक सूत्र में बांधने में सक्षम होता है। शहीद-ए-आज़म
सरदार भगत सिंह एवं के. बी. सहाय दो ऐसी ही शख्सियत हैं- जहां सरदार भगत सिंह एक
क्रांतिकारी समाजवादी थे वहाँ बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन
के पैरोकार। किन्तु जब समाज के गरीब एवं मुफ़लिस वर्ग के उत्थान का प्रश्न सामने
आया तब इन दोनों ही शख्स को हम एकमत पाते हैं- दोनों समतावादी समाज के हिमायती थे और
सामंतशाही एवं जमींदारी के कट्टर विरोधी। दोनों ही किसानों को उनकी जोत का स्वामित्व
दिलाने को कृतसंकल्प थे। इन दोनों का ही मत था कि सरकार का प्राथमिक लक्ष्य जमींदारों
से अतिरिक्त भूमि अपने कब्जे में लेकर इनका वितरण भूमिहीन मजदूरों एवं सीमांत
किसानों करना है। दोनों ही न्यूनतम लगान अथवा मालगुज़ारी के पक्षधर थे। यह बहुत ही
दिलचस्प संजोग है कि जमींदारी उन्मूलन एवं किसानों के उत्थान और ग्रामीण विकास के
जिस एजेंडे का जिक्र सरदार भगत सिंह ने 2 फरवरी 1931 को अपने सहयोगियों को संबोधित पत्र में
किया था, स्वतन्त्रता पश्चात ये सभी एजेंडे के.बी.सहाय द्वारा
कार्यान्वित कृषि-सुधारों के आधार बने।
सरदार भगत सिंह का सर्वोच्च बलिदान, आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल
है। 14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि जब सारी दुनिया सो रही थी,
भारत जीवन और स्वतन्त्रता की नई सुबह में आँखें खोल रहा था और यही वो क्षण था जब इसके
नेतृत्व ने स्वतंत्रता-सेनानियों की आकांक्षाओं को पूरा करने का संकल्प लिया था। आज
इतने वर्षों बाद इनमें से कई वायदें पूरे हुए। आज भी हम अधूरे वायदों को हासिल
करने की दिशा में प्रयासरत हैं। राष्ट्र निर्माण एक सतत प्रक्रिया है और यह
काल-कालांतर तक जारी रहेगा। भारत ने हाल के दिनों में जो प्रगति की है, वह हर भारतीय को अपने देश पर फ़क्र करने की वजह देता है।
सरदार भगत सिंह एक क्रांतिकारी समाजवादी थे। वे विदेशी
साम्राज्यवादी शासन के प्रबल विरोधी थे। किन्तु साथ ही अपने देशवासियों को इन साम्राज्यवादियों
के मित्रों, जिसमें
जागीरदार एवं जमींदार आदि शामिल थे, के सभी प्रकार के अन्याय
एवं ज़ुल्मों-सितम के खिलाफ आवाज उठाने के लिए भी प्रेरित किया। इतिहास के एक पहलू
से हम सभी वाकिफ हैं कि विधानसभा बम मामले में सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त
पर मुकदमा चलाया गया था। लेकिन जो बात आम तौर पर नहीं पता वो ये है कि सरदार भगत
सिंह ने असेंबली बम केस में ट्रायल के दौरान कोर्ट में एक बयान दिया था जो किसानों
के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उन्होंने कहा था और मैं
उद्धरित करता हूँ -“उत्पादक और श्रमिक समाज का सबसे
महत्वपूर्ण वर्ग हैं। किन्तु शोषक वर्ग उनकी गाढ़ी कमाई को लूटता है और उन्हें
बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखता है। किसान, जो सबके लिए
अन्न उगाते हैं, अपने परिवार के साथ भूखा सोने को मजबूर है, समस्त दुनिया के लिए कपड़ा बुनने वाले बुनकरों के पास अपने बच्चों को पहनाने
को पर्याप्त कपड़े नहीं होते, भव्य महल बनाने वाले बढ़ई, लोहार और राजमिस्त्री खुद झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को अभिशप्त हैं।
पूंजीपति और अन्य शोषक वर्ग अपनी विलासिता और आरामपरस्त ज़िंदगी के लिए इनपर जोंक की
तरह चिपके हैं। हमें इन्हें इन जोंकों से मुक्त कराना होगा। ।” उद्धरण समाप्त।
सरदार भगत सिंह के संघर्ष का उद्देश्य मात्र देश को
अंग्रेजों से मुक्त कराना नहीं था वरन उनका संघर्ष समाज में व्याप्त तमाम
कुप्रथाओं और असमानताओं के विरुद्ध भी था जिससे देश उस दौर में त्रस्त था।
31 दिसंबर 1929
की अर्ध-रात्रि रावी नदी के तट पर भारतीय स्वतंत्रता का तिरंगा झंडा फहराते हुए एक
ओर जहां देश और काँग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का संकल्प लिया वहीं दूसरी ओर सरदार भगत सिंह ने पूर्ण स्वतंत्रता के
एजेंडे को रेखांकित करते हुए साथी युवा क्रांतिकारियों को एक पत्र लिखा था। 2
फरवरी 1931, यानि अपनी शहादत से फकत डेढ़ महीने पहले लिखे इस
पत्र में सरदार भगत सिंह ने जमींदारी/जागीरदारी उन्मूलन को स्वतंत्र भारत के
प्राथमिक लक्ष्य के रूप में अंकित किया था। वे किसानों को जमींदारों की चंगुल से
मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने लिखा कि स्वतंत्र भारत की सरकार को जमींदारों से
जमीन अधिग्रहित इसे सीमांत किसानों एवं भूमिहीन मजदूरों के बीच वितरित करना चाहिए
ताकि इन्हें अपनी जोत पर मालिकाना हक़ मिल सके। सरदार भगत का मंतव्य था कि
जमींदारों की ज़ुल्मों की वजह से ही किसान कर्ज़ में डूबे हुए हैं। अतः जमींदारी
उन्मूलन के साथ-साथ इनके कर्ज़ की भी माफी होनी चाहिए। भगत सिंह ने न्यूनतम भूमि
राजस्व के अलावे अन्य किसी भी प्रकार के कर के सख़्त खिलाफ थे और उन्होंने अन्य सभी
करों को समाप्त करने का समर्थन किया। यह भगत सिंह के स्वप्न का कल्याणकारी राज्य का
ताना-बाना था।
आजादी से पहले के दौर में इन सपनों को साकार करना दुष्कर
कार्य था। किन्तु तब किसी को यह गुमान नहीं हुआ होगा कि स्वतन्त्रता के बाद इन
लक्ष्यों को हासिल और भी दुष्कर साबित होगा। तथापि आज़ादी के बाद स्वतन्त्रता
संग्राम के चंद तपे-तपाये नेताओं ने बेखौफ़ भगत सिंह के एजेंडे को अमली जामा पहनाने
का साहस दिखाया और इन क्रांतिकारियों से किए गए वादों को पूरा करने में कोई कसर
नहीं छोड़ी।
जमींदारी व्यवस्था की जड़ें लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा
लागू स्थायी बंदोबस्त अधिनियम, 1793 में थीं। यह व्यवस्था विदेशी शासन के अनुकूल थी क्योंकि इसने उन्हें
न्यूनतम शासन द्वारा भू-राजस्व के रूप में सुनिश्चित लाभ मुकर्रर था। साथ ही इस व्यवस्था
द्वारा जमींदार के रूप में एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जो अंग्रेजों के प्रति वफादार
थे और स्वतन्त्रता संग्राम को कुचलने में प्रायः उनके भरोसेमंद सहयोगी साबित हुए।
आजादी के बाद, बिहार देश का ऐसा राज्य था जहां
जमींदारी उन्मूलन के प्रयासों की शुरुआत हुई। 1946 में बिहार में गठित श्रीकृष्ण
सिन्हा के मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री रहे कृष्ण बल्लभ बाबू ने जमींदारी उन्मूलन
के लिए एक कानून का मसविदा तैयार किया और बिहार विधान सभा में पेश किया। यह पहला
ऐसा कानून था। इस फैसले का बड़े पैमाने पर असर पड़ा। ऐसे समय में जब राजनीति और,
काफी हद तक, समाज जमींदारों द्वारा नियंत्रित
था, के. बी. सहाय द्वारा ऐसा कानून लाना कोई मामूली उपलब्धि
नहीं थी। एक परंपरागत समाज में इस विधेयक ने खलबली मचा दिया। निश्चय ही जमींदारों
को यह नागवार गुजरा और भूस्वामियों का यह वर्ग विदेशी शासकों की सेवा के एवज़ में
प्रदत्त सम्मान, तमगों और उपाधियों को प्रदर्शित करते हुए इस
कानून को वापस लेने के लिए दवाब बनाने लगा। ये सभी तत्व के. बी. सहाय के खिलाफ गोलबंद
होने लगे। जमींदारों ने कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से भी संपर्क किया और विधेयक
को पारित होने से रोकने की अपील की। फिर, बिहार विधानसभा में
जमींदारी उन्मूलन विधेयक पेश होने के कुछ दिन पहले, के. बी.
सहाय पर कातिलाना हमला हुआ। एक मोटर दुर्घटना में वे गंभीर रूप से घायल हो गए। तथापि
के. बी. सहाय पर जमींदारों के इस कुप्रयासो का कोई असर नहीं हुआ- ऐसा लगता था मानो
‘सरफरोशी की तमन्ना उनके दिलो-दिमाग पर तारी था’। इन घटनाक्रमों से बेपरवाह तमाम प्रगतिशील राय के समर्थन से जब के. बी.
सहाय ने माथे पर खून से सनी पट्टी के साथ अंततः विधानसभा में जमींदारी उन्मूलन विधेयक
पेश किया तब वे सच्चे मायनों में उस संघर्ष के प्रतीक स्वरूप दिख रहे थे जिसका
सूत्रपात सरदार भगत सिंह एवं उनके साथी क्रांतिकारी देश की आज़ादी के बाद करना
चाहते थे। जमींदारों ने इस विधेयक को अदालतों में चुनौती दी जिसने राज्य को इसे
लागू करने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा जारी की। फलतः इस पहले विधेयक को निरस्त
करना पड़ा।
तथापि कृष्ण बल्लभ बाबू इस धचके से हतोत्साहित नहीं
हुए। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिन्हा के समर्थन से उन्होंने
संशोधित कानून बिहार भूमि सुधार विधेयक 1949 प्रस्तुत किया जिसे बिहार विधानमंडल द्वारा 1950 में पारित किया गया। जमींदारों
द्वारा एक बार फिर इस अधिनियम को पटना उच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी गई जिसे
मानते हुए पटना उच्च न्यायालय द्वारा कानून को भी इस बिना पर रद्द कर दिया गया कि इससे
संविधान के कतिपय प्रावधानों का उल्लंघन होता था।
बिहार भूमि सुधार कानून, 1950 को मान्य ठहराने के लिए
संविधान में पहला संशोधन लाने की जिम्मेवारी अब पंडित जवाहर लाल नेहरू और केंद्र
सरकार पर थी। फलतः संविधान में पहला संशोधन हुआ और बिहार भूमि-सुधार कानून 1950 को
एक नई अनुसूची (नौवीं) में रखा गया और इसे गैर-अदालती करार दिया गया। एक बार पुनः
इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी किन्तु देश के सर्वोच्च न्यायालय
ने इसे वैध माना। इस प्रकार अंततः जमींदारी प्रथा का अंत हुआ। बिहार इस लक्ष्य को
प्राप्त करने वाला पहला राज्य बन गया।यह एक युगांतकारी कानून था। इस कालजयी कानून के
प्रणेता थे कृष्ण बल्लभ बाबू।
किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू मात्र जमींदारी उन्मूलन
कानून बनाकर ही नहीं संतुष्ट हुए। ऐसा लगता था मानो उनपर सरदार भगत सिंह के एजेंडे
को हरफ और रूह की हद तक लागू करने का जुनून सवार था। इसी दिशा में कृष्ण बल्लभ
सहाय ने विधानसभा में ‘बिहार बंजर भूमि (पुनर्ग्रहण, खेती और सुधार)
अधिनियम, 1946, (बिल संख्या: 3, 1946)’
पारित करवाया और ज़मींदारों द्वारा अतिक्रमित भूमि का सरकार द्वारा
अधिग्रहण कर इस समस्त भूमि को भूमिहीन खेत मजदूरों एवं सीमांत किसानों के बीच
वितरित करवाया।
इसके बाद,
के. बी. सहाय ने बिहार स्टेट मैनेजमेंट ऑफ एस्टेट्स एंड
टेन्योर एक्ट (1949 का बिहार एक्ट XXI)
पेश किया, जिसने बिहार सरकार को बीस साल
के लिए बिना किसी मुआवजे के भुगतान के जमींदारी सम्पदा को अधिग्रहित करने का
अधिकार प्रदान किया। इस अधिनियम में सभी जमींदारी भूमि का प्रबंधन जिले के कलेक्टर
के जिम्मे करने का प्रावधान था। इस अधिनियम को अदालत ने रद्द किया, किन्तु तब तक जमींदारी उन्मूलन कानून पारित हो चुका था।
1950 में केबी सहाय द्वारा 'गैर-मजूरवा' भूमि के अतिक्रमण को हटाने के लिए बिहार
भूमि अतिक्रमण अधिनियम लागू किया गया था। 'गैर-मजूरवा'
जमीन पर जमींदारों का अवैध कब्जा था जिसे इस कानून द्वारा हटाया गया
और पुनः ऐसी भूमि खेतिहर मजदूरों और सीमांत किसानों के बीच आबंटित कर दी गयी।
बिहार निजी वन अधिनियम, 1946 का लक्ष्य जमींदारों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध
कटाई पर रोक लगाना था और वनों को नष्ट होने से बचाना और इनका संरक्षण था। इस कानून
द्वारा सूबे की समस्त निजी वन संपत्ति को सरकारी नियंत्रण में लाया गया। भगत सिंह
की कल्पना थी कि भूमि को सरकारी नियंत्रण में लाया जाना चाहिए। ये सभी अधिनियम इस
उद्देश्य प्राप्ति में सफल रहा।
बकाश्त विवाद निपटान अधिनियम लागू कर जमींदारों और काश्तकारों के बीच लगान
विवाद के मुद्दे को सुलझाने का प्रयास किया गया। अक्सर जमींदार समय पर लगान न जमा
करा पाने पर किसानों को उनकी भूमि से बेदखल कर दिया करते थे। काश्तकारों की ऐसी
भूमि जिसपर जमींदार ज़ोर-जबर्दस्ती से कब्जा कर लेते थे बकाश्त कहलाती थी। ज़मींदार
इस बकाश्त ज़मीन का रख-रखाव और जोत-कोड़ अपने नौकरों, बंधुआ मज़दूरों आदि से करवाते थे। अधिनियम में
पंचायत बोर्ड का गठन प्रस्तावित था जो एक प्रकार का मध्यस्थता बोर्ड का काम करता था
एवं जमींदारों और काश्तकारों के विवाद को निपटाता था, प्रत्येक
मामले की निष्पक्ष जांचकर मामले की योग्यता के आधार पर रैयत या जमींदारों को ऐसी
भूमि प्रदान करता था। अधिनियम के प्रावधानों ने किसानों को उनकी जमीन वापस दिलाने
में मदद की।
कृषि भूमि की
सीमा तय करने के लिए 1955 में के. बी. सहाय ने बिहार कृषि भूमि (सीमा और प्रबंधन) विधेयक
पेश किया। बिल का उद्देश्य जमींदारों द्वारा जमींदारी उन्मूलन के प्रावधानों से बचने
के लिए किए गए सभी बेनामी लेनदेन को रद्द करना है।
के. बी. सहाय द्वारा लाये गए इन सभी विधायी उपायों का
एकमात्र उद्देश्य किसानों को उनकी जोत की मिल्कियत दिलाना था ताकि उन्हें अपना
खोया हुआ गौरव पुनः हासिल हो। एक समतावादी समाज के लक्ष्य हालांकि अभी भी दूर थे, फिर भी, के. बी.
सहाय ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज में एक बदलाव लाने में सफल रहे, जहां देश का किसान एक बार फिर बिना किसी डर के रह सकता था और अपने सिर
ऊंचा कर अपना जीवन जी सकता था। के. बी. सहाय द्वारा शुरू किए गए कृषि सुधारों ने
शहीद-ए-आजम भगत सिंह द्वारा परिकल्पित पूर्ण स्वतंत्रता के उद्देश्यों को प्राप्त
किया और यही इस महान शहीद को एक वास्तविक श्रद्धांजलि है।
एक राष्ट्र की यात्रा में एक समय आता है जब हम अपने
स्वतंत्रता सेनानियों के सर्वोच्च बलिदान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उन्हें याद
करते हैं और उसके नागरिक अपने देश की प्रगति के लिए काम करने के लिए अपने
स्वतंत्रता सेनानियों के नक्शेकदम पर चलने का संकल्प लेते हैं। इस वर्ष आजादी के 75वें वर्ष को देश जब 'आजादी का अमृत महोत्सव' के
रूप में मना रहा है और इस अवसर पर स्वतंत्रता संग्राम के भूले-बिसरे नायकों को याद
कर रहा है, मैं राष्ट्र को कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे गुमनाम
नायकों को याद करने का आह्वान करता हूँ। मुझे गर्व है आजादी के बाद भारत में हुए कृषि
सुधारों पर आधारित कोई भी अध्ययन कृष्ण बल्लभ सहाय की उपलब्धियों का उल्लेख किए
बिना अपूर्ण है। यह गर्व की बात है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के कृषि सुधार दुनिया भर
के तमाम बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के डॉक्टरेट अनुसंधान का विषय-वस्तु रही है।
के. बी. सहाय एक साहसी व्यक्ति थे- 'बिहार के लौह पुरुष'- एक ख़िताब जिससे उन्हें तात्कालिक बिहार का प्रमुख समाचार पत्र 'द इंडियन नेशन' ने नवाजा था। यह उनकी मजबूत नेतृत्व
शैली ही थी जो वे किसानों के मुद्दे पर हिम्मत और साहस के साथ जमींदारों से लोहा ले
पाये और एक ऐसे कल्याणकारी राज्य का सपना साकार करने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया
जिसकी परिकल्पना एवं प्रतिज्ञा देश ने स्वतन्त्रता के समय की थी।