Wednesday, 31 December 2014

जब भारतीय संविधान में प्रथम संशोधन किया गया




65 वर्ष पूर्व, 26 जनवरी के दिन देश की जनता ने खुद को, देश का संविधान समर्पित किया था। भारत का संविधान विश्व के तात्कालिक लिखित संविधानों में सबसे बड़ा लिखित दस्तावेज़ था। संविधान निर्माताओं का यह प्रयास था कि यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ भारत के लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का प्रतीक बने। इन पैसंठ वर्षों में इस दस्तावेज में कईं संशोधन किये गये और आज की तारीख में हमारे देश के संविधान में तकरीबन एक सौ से अधिक संशोधन किये जा चुके हैं। यह देश की बदलती सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य का ढ्योतक है। इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में किया गया प्रथम संशोधन का इतिहास स्वतंत्रता पश्चात देश की बदलती सामाजिक सम्बंधों का रुचिकर अध्ययन प्रस्तूत करता है। पर इस पर चर्चा करने से पूर्व संविधान के लिखे जाने की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालना विषयोचित होगा। 

फरवरी 1947 में ब्रिटिश हुकूमत के अंतिम प्रतिनिधि के रूप में वाइसरॉय लॉर्ड लूई माउंटबेटन का भारत आगमन हुआ। माउंटबेटन के आने के साथ यह निश्चित हो गया था कि देश में सत्ता हस्तानतरण अब महज समय का मोहताज़ है क्योंकि इनके आगमन से पूर्व ही स्वतंत्र भारत के नये संविधान हेतु  संविधान-सभा का गठन 6 दिसम्बर 1946 को हो गया था। 482 सदस्ययी इस सभा में, जिसमे 389 सदस्य ब्रिटिश इंडिया से थे और शेष 93 राजवाडों से चुने गए थे, की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई और  इस सभा ने 13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तावित "ध्येय-संकल्प" को स्वीकृति प्रदान की  यह संकल्प संविधान की दिशा और दशा निर्धारित करने में काफी सहायक सिद्ध हुआ। स्वतंत्रता पश्चात इस संविधान-सभा के कई सदस्य पकिस्तान चले गए। पर शेष 369 भारतीय सदस्यों ने, जिनमें से 299 ब्रिटिश हुकुमत वाले क्षेत्र से थे और शेष 70 जो भारत में विलय हुए राजवाडों में से थे, ने संविधान निर्माण का कार्य अनवरत जारी रखा था। संविधान-सभा में तात्कालीन भारत के समस्त स्वतंत्रता-संग्रामी, एडवोकेट, शिक्षाविद, समाजसेवक और अपने-अपने क्षेत्र के अग्रणी हस्ती सदस्य थे। इन महानुभावों के अथक प्रयासो का फल था कि इस सभा द्वारा संविधान का पहला मसौदा फरवरी 1948 में पूरा कर लिया गया।  तत्पश्चात इस मसौदे की संविधान-सभा के सदस्यों द्वारा पुन: समीक्षा  की गई। यह समीक्षा भी 17 अक्तूबर 1949 तक पूर्ण कर ली गई। तत्पश्चात इस दस्तावेज़ को सार्वजनिक करने से पूर्व इस का अंतिम पठन किया गया और 26 नवम्बर 1949 को इसे संविधान-सभा द्वारा स्वीकृति प्रदान की गयी और बतौर स्वीकृति सभा के सदस्यों ने इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किये 

इसी दरम्यान जब देश का संविधान लिखा जा रहा था, 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान की सरकारों को सत्ता हस्तान्तरण के साथ ही राज्यों में भी लोकप्रिय सरकारों का गठन हो गया था इन राज्यों की सरकारें लोकप्रिय योजनायें लागू करने में लग गयी थी। इसी क्रम में बिहार में श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में कॉंग्रेस की सरकार का गठन हुआ। श्री कृष्ण सिन्हा की सरकार में राजस्वमंत्री कृष्ण बल्लभ हाय ने किसानों और बन्धुआ मजदूरों के कल्यानार्थ और ज़मींदारों से उन्हें मुक्त करवाने के लिए कानून में आवश्यक फेरबदल करने का निर्णय लिया। के. बी. सहाय ने संविधान-सभा में बिहार का प्रतिनिधित्व किया था और ये बिहार से संविधान-सभा के 36 सदस्यों में से एक थे। संविधान-सभा के सदस्य के बतौर इन्होनें संविधान निर्माण के कार्य में भी गहरी रूचि दिखाई थी। पर के. बी. सहाय की वास्तविक अभिरूचि स्वतंत्र देश में गरीब किसानों और बन्धुआ मज़दूरों के हितों की रक्षा करना था। इस दिशा में वे तब भी प्रयासरत थे जब 1937-1939 में देश में प्रान्तीय सरकारों का गठन हुआ था और श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में बनी सरकार में इन्हें संसदीय सचिव का पदभार दिया गया था।  इनका लक्ष्य लार्ड कार्नवॉलिस द्वारा स्थापित परमानें सेटलमेंट एक्ट 1793 के स्थान पर एक ऐसा भूमि बन्दोबस्ती व्यवस्था लागू करना था जो गरीब किसानों को ज़मीन का वास्तविक मालिकाना हक दिलवा सके। किन्तु इस काल में इन्हें इस कार्य में यथोचित सफलता नहीं मिल पाई थी वजह यह रही कि प्रान्तीय सरकारों के अधिकार सीमित थे और ये सरकारें 1935 के एक्ट के खिलाफ नहीं जा सकती थी। दूसरी वजह थी कि केन्द्र में वाइसरॉय और राज्य में गवर्नर को असीमित शक्ति प्रदत थी और वे ऐसे किसी भी कानून को निरस्त करने में सक्षम थे जो ब्रिटिश हुकुमत के हितों के विरुद्ध थी। तथापि इस दौर में भी श्री कृष्णा सिन्हा की सरकार ने किसानों के हित में कई निर्णय लिये जिन्हे लागू करवाने में के. बी सहाय का बहुत योगदान था। इन निर्णयों में लगान को क़म करना, रैयतों को ज़मींदारों को जमीन का सामान्य मोल भुगतान कर मालिकाना हक़ दिलवाना, 1929 के पूर्व के सभी बकाश्त भूमि को उनके वास्तविक मालिक को वापस करना और उपज में ज़मींदारों का हिस्सा कुल उपज का 9/20 भाग तक सीमित करना था। सर्वाधिक लोक कल्याणकारी निर्णय यह था कि लगान भुगतान ना कर पाने की अवस्था में ज़मींदारों द्वारा खेतिहर को बेदखल करने की ज़मींदारों की शक्ति को निशक्त कर दिया गया और ना ही ज़मींदारों को यह हक़ रहा कि वे मनमानी लगान वसूल कर सकें। इन सभी निर्णयों द्वारा ज़मीन पर किसानों का असली हक़ बहाल करने का प्रयास हुआ और ये सभी निर्णय मूलतः ज़मींदारी उन्मूलन की दिशा में उठाये गये कदम ही थे। इस काल में भी के बी सहाय स्वामी श्रद्धानंद के नेतृत्व में अथवा स्वयं भी कई किसान सभा आयोजित कर किसानों को सजग बनाने का प्रयास करते रहे थे। अतः जब देश स्वतंत्र हुआ तो के. बी. सहाय पर ना तो 1935 के एक्ट की बंदिश थी और ना ही गवर्नर के नियंत्रण की। यही वजह थी कि श्री कृष्णा सिन्हा के मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री बनाने के बाद के. बी. सहाय का एक ही ध्येय रह गया था: परमानेंट सेटल्मेंट एक्ट 1793 को निरस्त कर एक ऐसा कानून बनाना जो ज़मीन का हक़ ज़मीन जोतने वाले को दिला सके। स्थायी बंदोबस्ती कानून 1793 द्वारा अंग्रेज़ों ने ब्रिटिश हुकूमत की सारी ज़मीन ज़मींदारों को एक निश्चित लगान के एवज़ में सौंप रखा था। ये ज़मींदार ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिनिधि के रूप में किसानों से लगान वसूलते और अपना हिस्सा रख बाकी सारी राशि ब्रिटिश कोषागार में जमा करवा देते थे। ज़मींदार यदि लगान वसूल करने में असक्षम होते तो उनसे ज़मींदारी छीन ली जाती और इलाके के किसी किसी दूसरे दबंग अथवा रसूख वाले व्यक्ति को दे दी जाती जो कि लगान वसूल करने में सक्षम हो। निश्चय ही ज़मीदार ज़मीन के मालिक नहीं थे और वे अंग्रेज़ों के प्रतिनिधि बतौर एक कमिशन एजेंट की तरह कार्य कर रहे थे। पर यह व्यवस्था पिछले 150 वर्षों से चली आ रही थी और इतने वर्षों में ज़मींदार खुद को ज़मीन का वास्तविक मालिक ही समझ बैठे थे। ज़मींदारी व्यवस्था जाति व्यवस्था की पूरक थी और गावं का ज़मींदार बहुधा ऊची जाति का होता जबकि किसान पिछड़ी जाति क़ा। भारत क़ा प्रत्येक गावं इन जातिगत दीवारों से बँटा हुआ था। जहाँ एक ओर वृहत स्तर पर रजवाड़ों क़ा विलयकरण कर सरदार पटेल भौगोलिक रूप से देश को एकता की सूत्र में पिरोनें में लगे थे वहीं के बी सहाय क़ा प्रयास था कि ज़मींदारी उन्मूलन कर गावं-गावं में अमीरी गरीबी की खाई को पाट कर सामाजिक न्याय क़ा वह दौर लाया जाये जहाँ देश क़ा गरीब से गरीब किसान भी स्वतंत्रता की महत्व को समझ सके। देश क़ा सामाजिक एकीकरण की दिशा में ज़मींदारी उन्मूलन एक महत्वपूर्ण कदम था। यही वजह है कि जहाँ भौगोलिक एकीकरण के लिये सरदार पटेल को भारत क़ा लौह पुरुष कहा जाता है वहीं इस सामाजिक एकीकरण के प्रयास के लिये बिहार की तत्कालिक मीडिया ने के. बी. सहाय को बिहार का लौह पुरुष के खिताब से नवाज़ा था। ज़मींदारी व्यवस्था के उन्मूलन से सम्बंधित कोई नया कानून बनाने से पहले के. बी. सहाय ने स्थायी बंदोबस्ती व्यवस्था 1793 कानून का विस्तृत और गहन अध्ययन किया। अपने मित्र और पटना हाई  कोर्ट के प्रसिद्ध वकील श्री बजरंग सहाय के साथ कलकत्ता के नॅशनल लाइब्ररी भी गये और वहां लॉर्ड कॉर्नवालिस के इस कानून से सम्बंधित दस्तावेज़ भी खंगाले। कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था को बदलने के लिये कानून का ही सहारा लिया गया।

16 अप्रैल 1946 को मंत्री बनने से लेकर अगले 11 वर्ष श्री सहाय के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षतम वर्ष माने जा सकते हैं। इस दौरान केवल बिहार वरन दिल्ली की राजनीति में भी ये केंद्र में रहे। ज़मींदारी उन्मूलन कानून को लेकर 1946-1948 के काल में श्री सहाय को ज़मींदारों का अभूतपूर्व विरोध का सामना करना पड़ा। यह विरोध इतना प्रचंड था क़ि एक समय गांधीजी भी क़ानून द्वारा सामाजिक समानता लाने के उनके इस प्रयास के प्रति सशंकित हो गए। गांधीजी का विचार था कि ऐसा क़ानून समाज में फूट पैदा कर सकता है और सामाजिक समरसता को क्षीण भिन्न कर सकता है। अग्रेजों ने समाज के सवर्णों को ही ज़मींदार बनाया था। इस विधेयक की वजह से श्री के.बी.सहाय सवर्णों के निशाने पर आ गए। उन्होंने श्री सहाय के विरोध में कोई कसर नहीं छोड़ा। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत सम्मानों और मेडलों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए इनका समूह एकजुट हो कर अपनी देशभक्ति के उपादान में ज़मींदारी व्यवस्था बरकरार रखने के लिए तात्कालिक राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से अपील भी किया। तार भेज कर बिहार को गृहयुद्ध की ओर धकेलने से रोकने की अपील की गयी। इन विरोधों के बावजूद श्री के.बी.सहाय अपने लक्ष्य से जरा भी विचलित नहीं हुए। जब ज़मींदारों ने अपील और विरोध का कोई असर नहीं देखा तो उन्होंने श्री के.बी.सहाय पर कातिलाना हमले भी करवाए। यह श्री सहाय का भाग्य था के वे इस हमले में बच गए। खून से सनी पट्टी सर पर बांधे जब श्री सहाय ने बिहार विधान सभा में ज़मींदारी उन्मूलन विधेयक प्रस्तुत किया तो वे ज़मींदारी उन्मूलन केसंघर्ष के सच्चे प्रतीक नज़र रहे थे। के.बी.सहाय के नेतृत्व में बिहार देश का पहला राज्य बना जिसने ज़मींदारी उन्मूलन से सम्बंधित विधेयक पारित किया था। 1947 में बिहार विधान सभा में यह बिल प्रस्तुत किया गया। कुछ संशोधनों के साथ यह बिल विधान सभा से पारित हुआ और इस प्रकार ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट 1948, राज्य में लागू हो गया। इस क़ानून द्वारा अब तक जिस ज़मीन, वन, तालाब, बाज़ार और खानों आदि पर ज़मींदारों की मिलकियत थी, वो सब राज्य सरकार के अधीन गई। राज्य सरकार को यह अधिकार मिला कि इस संपत्ति का वितरण भूमिहीन कृषक, दलितों और हरिजनों के बीच करे। प्रत्येक जोत की सीमा निर्धारित कर दी गयी। इस एक क़ानून से ज़मींदारों की सारी मिलकियत का अंत हो गया जो उन्होंने कभी अग्रेज़ी शासन से प्राप्त किये थे।

ज़मींदारों ने दरभंगा नरेश डॉक्टर कामेश्वर सिंह के नेतृत्व में इस क़ानून को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने इस क़ानून को निरस्त कर दिया। न्यायलय का मानना था कि  यह क़ानून संविधान द्वारा ज़मींदारों को प्रदत्त संपत्ति के मौलिक अधिकार का हनन करता है। बिहार सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया। यही वह दौर था जब इस क़ानून को बहाल रखने के लिए भारत के संविधान में प्रथम बार संशोधन करने की नौबत आन पड़ी। भारत के प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु ने 10 मई 1950 को प्रथम संविधान संशोधन प्रस्ताव संसद के समक्ष रखते हुए इसके औचित्य और उद्देश्य पर प्रकाश डाला। संविधान के मौलिक अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद 31 अर अंकुश लगाते हुए अनुच्छेद 32 (ख) को इसके अपवादस्वरूप जोडा गया और इस अनुच्छेद को संविधान की नवी अनुसूची में रखा गया तकि इसकी वैधता को न्यायालय मे चुनौती नहीं दी जा सके। इस अनुसूची मे सर्वप्रथम स्थान बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 ( बिहार का अधिनियम 30, 1950) को स्थान मिला और इस प्रकार कृष्ण बल्लभ सहाय द्वारा रचित ज़मींदारी उन्मूलन विधेयक भारत के संविधान के प्रथम संशोधन का वजह बना और इस प्रथम संशोधन के बाद संविधान का एक अंश। भविष्य में भी अन्य राज्यों द्वारा भी पारित भूमि सुधार से सम्बंधित विधेयकों को इसी नवी अनुसूची मे स्थान मिला और आज की तारीख में इस अनुसूची मे 280 से भी अधिक कानून अंकित हैं।

तो यह थी भारतीय संविधान के प्रथम संशोधन का विवादस्पद और संघर्ष पूर्ण इतिहास की कहानी। यह दुर्भाग्य  पूर्ण है कि प्रथम संशोधन के रूप मे भारतीय संविधान के इतिहास मे कृष्ण बल्लभ सहाय के इस प्रयास के दर्ज होने के साथ साथ ही इसके प्रणेता को देश ने भी भुला दिया। इनकी प्रशासनिक प्रतिभा और साहस के प्रशंसा कभी जय प्रकाश नारायण ने खुल कर की थी। श्री जय प्रकाश नारायण की नज़रों में श्री  कृष्ण बल्लभ सहाय "आधुनिक बिहार का निर्माता" थे तत्कालीन समाचार पत्र "इंडियन नेशन " ने कृष्ण बल्लभ सहाय को "बिहार के लौह पुरुष" की खिताब से नवाज़ा था। उनकी कुशाग्र बुद्धि का लोहा विपक्ष भी मानता था और कठोर प्रशासनिक निर्णय लेने और उसे शीघ्र लागू करने की उनकी क्षमता की आज भी पटना के प्रशासनिक हलकों में चर्चा होती है। आदिवासी और दलितों के कल्याण के लिए किये गए उनके कार्य उन्हें, किसी भी आदिवासी मुख्यमंत्री की तुलना में, आदिवासियों का अधिक हितैषी बना देता है। तथापि बिहार और झारखण्ड के इतिहास में आज इनका वो स्थान नहीं है जिसके ये काबिल थे। आज भी उनकी पार्टी यानी कांग्रेस पार्टी बिहार में दलितों के लिए किये गए कार्यों का लेखा जोखा जब जनता के सामने रखती है तो कांग्रेस शासन की उपलब्धियों के तौर पर बताने को के.बी.सहाय के भूमि सुधार से सम्बंधित योगदान के अलावा और कुछ विशेष नहीं रहता। 2000 के बिहार चुनाओं में इलेक्शन रैली को संबोधित करते हुए श्रीमती सोनिया गाँधी के ये विचार कि "बिहार में विकास तभी हुए हैं जब राज्य में कांग्रेस सरकारें रही; "यहाँ तक क़ी भूमि सुधार भी कांग्रेस मुख्यमंत्री श्री.के.बी.सहाय द्वारा ही शुरू क़ी गई थीI" (इंडियन एक्सप्रेस, 5 फरवरी 2000), इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। श्री सहाय के योगदान की महत्ता उनकी मृत्यु के 37 साल बाद भी ज्यों कि त्यों बनी हुई है। श्री सहाय और ज़मींदारी उन्मूलन से सम्बंधित उनके प्रयासों की सार्थकता तब तक बनी रहेगी जब तक ज़मीन को लेकर जातिगत संघर्ष का अंत नहीं हो जाताI यह श्री सहाय के कलम की शक्ति थी जिससे भारत के संविधान में पहला संशोधन हुआ और एक नयी अनुसूची को संविधान में जोड़ा गयाI यदि के.बी.सहाय दलित वर्ग से आते तो उनका यह प्रयास उन्हें किसी भी राष्ट्रीय स्तर के नेता के समकक्ष खड़ा कर देता; किन्तु वे वोट बैंक की दृष्टि से महत्वहीन कायस्थ जाति से आते थे। इसलिए यह राष्ट्र और बिहार राज्य यहाँ तक की उनकी अपनी पार्टी ने भी उन्हें भुला दिया। आज यह उचित समय है क़ि श्री.के.बी.सहाय की योग्यता और उनके द्वारा किये गए महत्तम कार्यों को देखते हुए बिहार सरकार उन्हें उनका उचित सम्मान दे। कम से कम उनके नाम पर स्वतंत्रता संग्रामियों की श्रृंखला में एक डाक टिकट तो जारी करवाने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह तो बिहार सरकार कर ही सकती है, ताकि इस वीर सपूत की यादों को अमर रखा जा सके।