कृष्ण बल्लभ सहाय के राजनैतिक जीवन के रोचक प्रसंग: 1: सत्याग्रह बनाम राजनैतिक आंदोलन
कृष्ण बल्लभ सहाय
9 दिसंबर
1964 का वाकया है। बिहार विधानसभा के पटल पर ‘बिहार
मेंटीनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर (अमेंडमेंट) बिल 1964’ पर बहस चल रही थी। यह कानून मूलरूप में 1949 में पारित हुआ
था। संशोधन द्वारा अब यह प्रस्तावित था कि कोई भी संगठन अथवा व्यक्ति सरकार को
सूचित किए बिना धरना, जुलूस और
सार्वजनिक सभा आयोजित न करें। साथ ही ऐसे अवसरों पर हथियार लेकर शिरकत करने पर
पूर्ण पाबंदी भी लगाने संबंधी संशोधन भी प्रस्तावित था। औद्योगिक उपक्रमों के
कैम्पस को ‘प्रतिबंधित क्षेत्र’ घोषित
किया गया था ताकि कम्यूनिस्ट आंदोलनों से औद्योगिक उत्पादन अनावश्यक प्रभावित ना
हों। किन्तु देश में यह वो दौर था जब किसानों और मजदूरों के मुद्दे पर कम्यूनिस्ट
एवं काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी एक साथ सरकार पर धावा बोलती थी। जैसा कि अंदेशा था इस
बिल के खिलाफ इन पार्टियों ने जगह-जगह आंदोलन आयोजित किए। काँग्रेस सोशलिस्ट
पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री रामानन्द तिवारी (वर्तमान में राष्ट्रीय लोकदल के
लोकप्रिय नेता श्री शिवानंद तिवारी के पिताजी)
को आरा में कचहरी के सामने धरना देते वक़्त गिरफ्तार कर बक्सर जेल भेज दिया
गया था। इसी प्रकार मुंगेर में भी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी द्वारा आंदोलन आयोजित
किया गया जहां उसके नेता कपिलदेव सिंह गिरफ्तार होने से मात्र इसलिए बच गए क्योंकि
वे जुलूस में सबसे पीछे चल रहे थे। झुमरी तिलैया में जब डिप्टी कमिश्नर ने एक
साहूकार के दुकान को अनाज की कालाबाजारी के जुर्म में सील किया तब विश्वनाथ प्रसाद
मोदी के नेतृत्व में वहाँ के छूटभैये नेताओं की टोली ने डिप्टी कमिशनर पर पथराव
किया जिसकी वजह से विश्वनाथ प्रसाद मोदी को जेल भेजा गया।
इस
परिप्रेक्ष्य में जब कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार विधान सभा में बिल में प्रस्तावित
संशोधनों पर बोलने के लिए खड़े हुए तब उनका विरोध होना लाजिमी था। किन्तु इसकी
परवाह ना करते हुए उन्होंने जो कहा वो वास्तव में उनके सशक्त नेतृत्व का उम्दा
उदाहरण है। बीच-बीच में रामचरितमानस से चौपाइयों को इस प्रकार उद्धृत किया जो उनके
सख्त प्रशासक होने के साथ साथ उनकी विद्वत्ता का भी परिचायक था। अपने इस
अविस्मरणीय अभिभाषण में उन्होंने विपक्ष का ध्यान ‘राजधर्म’ की ओर दिलाया-
‘मैं
समझता हूँ कि नागरिक आज़ादी पर यह बिल बहुत बड़ा प्रतिबंध नहीं है। मैं समझता हूँ कि
माननीय सदस्य को कोई उज्र नहीं होगा यदि मैं इस धारा का प्रयोग करूँ। जो ‘प्रतिबंधित क्षेत्र’ हैं वहाँ पर यदि कोई ज़बरदस्ती
घुस जाये तो कार्रवाई होगी ही। ...अगर पतरातू, टेल्को आदि
में इसका इस्तेमाल किया जाता है तो आपको इससे डर क्यों लगता है? मीटिंग के लिए कहीं भी रुकावट नहीं डाली गयी है। जहां अनुमति मांगी गयी
वहाँ अनुमति दी गयी है। किन्तु जहां ‘घेरा
डालो आंदोलन’ की कोशिश
की गयी वहाँ कार्रवाई की गई। ‘घेरा डालो’ का एक ही अर्थ होता है- ‘You take a course of illegal confinement’। आपने ‘घेरा डालो’ आंदोलन उन दूकानदारों पर नहीं किया जो अनाज की कालाबाजारी कर रहे थे।
आपने ‘घेरा डाला’ थाने पर, बी.डी.ओ., एस.डी.ओ., कलक्टर
के दफ्तरों पर जहां अनाज का एक दाना भी नहीं था। अतः इनकी गिरफ्तारी हुई। मैं
समझता हूँ कि उनका यह कृत्य अनलॉंफुल था इसलिए हमने कार्रवाई की और हमारा इरादा भी
है कि आगे भी हम ऐसी ही कार्रवाई करेंगें। यह बात भी सही है कि जितने लोग भी
कम्यूनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के हैं सबों ने कानून का उल्लंघन नहीं किया
है।’
(इस अवसर
पर विधानसभा अध्यक्ष श्री लक्ष्मी नारायण सुधांशु ने मुख्यमंत्री का ध्यान इस ओर
दिलाया कि सोशलिस्ट नहीं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी कहें)
‘जी, गलती हुई। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही है। असल में बात यह है कि जैसा तुलसीदास
ने कहा है ‘केशव कहि न जाय का कहिये, रचना तोहि विचित्र अति समुझि समुझि मन रहिये’- ये
समाजवादी कितने रूप धरण करेंगें इसका ठिकाना नहीं है। (तथाकथित समाजवादी नेताओं के लिए यह आज भी सटीक है) किन्तु
चूंकि सभी लोगों ने गलती नहीं की इसलिए मैंने पब्लिक मीटिंग में अपने दोस्त बाबू
कपिलदेव सिंह (तब बोरियों, मुंगेर से
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से विधायक), जिनको मैं अपने छोटे भाई
के समान मानता हूँ की दाद दी है क्योंकि जब और लोग पुलिस कार्डन तोड़कर मुंगेर
एस.डी.ओ. के इजलास के अंदर चले गए तब हमारे दोस्त पीछे थे। लिहाजा उनकी गिरफ्तारी
नहीं हुई।‘
(इस अवसर
पर विधानसभा अध्यक्ष श्री लक्ष्मी नारायण सुधांशु ने टोका कि इस रूप में आपने दाद
नहीं दी है जैसे वो कायर हों)
‘मैं
दाद ही दे रहा था। यह जो आंदोलन हमारे दोस्तों ने किया है वो सत्याग्रह नहीं है।
सत्याग्रह जो करता है वो अपने को सरेंडर कर देता है। वो इस बात की फिक्र नहीं करता
कि जेल में कौन सा डिविजन मिलेगा, कब जेल से छूटेंगें। यह सत्याग्रह
नहीं था, यह राजनैतिक आंदोलन था। कानून के मुताबिक हमें
शांति कायम रखना था, इसलिए हमने ऐसा किया। तुलसीदास की एक
नीति के दोहे को मैं उद्धृत करता हूँ- ‘दानी
कहाउब अरु कृपनाई; होइ कि खेम कुसल रौताई।
(भावार्थ: दानी भी कहाना और कंजूसी भी करना लड़ाई में बहदुरी भी दिखावें और कहीं
चोट भी न लगे) आपने आंदोलन किया,
कानून तोड़ा और यह कहें कि यह डिविजन नहीं मिला, वह डिविजन
नहीं मिला, उचित बात नहीं है। जो
प्रशासन चलाता है उसे हमेशा समय के साथ जूझना पड़ता है। इसलिए जब तक हम काम करते
हैं, साहस के साथ काम करेंगें और कड़े से कड़े विरोध के बावजूद अपने शासन को सही
ढंग से चलाएंगें।‘
अध्यक्ष: प्रश्न यह है कि ‘बिहार मेंटीनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर (अमेंडमेंट) बिल 1964’ , स्वीकृत हो।
प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।
सभा शुक्रवार तिथि 11 दिसंबर 1964 के 9 बजे
पूर्वाह्न तक स्थगित की गई।
(साभार:
बिहार विधानसभा डिबेट से)
This is a great sign of administrater
ReplyDeleteto be friend but firm.